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________________ बौद्ध और जैन प्रमाणमीमांसा - एक तुलनात्मक अध्ययन : १३ की भी कहीं अनुभूति नहीं है। व्यष्टि में समष्टि और समष्टि में व्यष्टि अनुस्यूत हैं, अतः बौद्ध दार्शनिकों का सामान्यलक्षण प्रमेय नहीं हो सकता, क्योंकि वह वस्तुसत् या स्वलक्षण नहीं है। पुनः अकलंक का कहना है कि मात्र स्वलक्षण भी प्रमेय नहीं हो सकता, क्योंकि उसका भी अलग से कहीं बोध नहीं होता है और न वह अभिधेय होता है। अत: प्रमाण का विषय या प्रमेय तो सामान्यविशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु ही हैं। पुन: बौद्धों ने जिसे स्वलक्षण कहा उसे या तो क्षणिक मानना होगा या नित्य मानना होगा, किन्तु एकांत क्षणिक और एकांत नित्य में भी अर्थक्रिया सम्भव नहीं हैं, जबकि स्वलक्षण को अर्थक्रिया में समर्थ होना चाहिए, अतः जैन दार्शनिकों का कथन है कि नित्यानित्य या उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक वस्तु ही प्रमेय हो सकती है। यहाँ ज्ञातव्य है कि बौद्ध दार्शनिक भी परमतत्त्व, परमार्थ या स्वलक्षण को न तो नित्य मानते हैं और न अनित्य मानते हैं। जैन और बौद्ध दर्शन में मात्र अन्तर यह है कि जहाँ जैन दर्शन विधिमुख से उसे नित्यानित्य, सामान्यविशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक कहता है, वहाँ बौद्ध दर्शन उसके संबंध में निषेधमुख से यह कहता है कि वह सामान्य भी नहीं हैं, विशेष भी नहीं है, शाश्वत भी नही है, विनाशशील भी नहीं है आदि। प्रमेय के स्वरूप के संबंध में दोनों में जो अन्तर है वह प्रतिपादन की विधिमुख और निषेधमुख शैली का है। इस प्रकार दोनों दर्शनों में प्रमाण और प्रमेय के स्वरूप के संबंध में क्वचित् समानताएँ और क्वचित् भिन्नतायें हैं। उपसंहार बौद्ध और जैन प्रमाणमीमांसा में जो समानताएँ और असमानताएँ परिलक्षित होती हैं, उनका संक्षिप्त उल्लेख आवश्यक है - १. जैन और बौद्ध दर्शन दोनों ही दो प्रमाण मानते हैं, किन्तु जहां जैनदर्शन प्रमाण के इस द्विविध में प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रमाणों का उल्लेख करता है, वहाँ बौद्ध दर्शन प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो प्रमाण स्वीकार करता है। इस प्रकार प्रमाण के द्विविधवर्गीकरण के संबंध में एकमत होते हुए भी उनके नाम और स्वरूप को लेकर दोनों में मतभेद है। दोनों दर्शनों में प्रत्यक्ष प्रमाण तो समान रूप से स्वीकृत हैं, किन्तु दूसरे प्रमाण के रूप में जहाँ बौद्ध अनुमान का उल्लेख करते हैं, वहाँ जैन परोक्ष प्रमाण का उल्लेख करते हैं और परोक्ष प्रमाण के पाँच भेदों में एक भेद अनुमान प्रमाण मानते हैं । प्रत्यक्ष के अतिरिक्त परोक्षप्रमाण में वे स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और आगम को भी प्रमाण मानते हैं। २. बौद्धदर्शन में स्वलक्षण और सामान्यलक्षण नामक दो प्रमेयों के लिए दो अलगअलग प्रमाणों की व्यवस्था की गई है, क्योंकि उनके अनुसार स्वलक्षण का निर्णय प्रत्यक्ष प्रमाण से होता है । किन्तु जैन दर्शन वस्तुतत्त्व को सामान्यविशेषात्मक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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