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________________ बौद्ध और जैन प्रमाणमीमांसा - एक तुलनात्मक अध्ययन : ११ यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जैन आगमों में प्रमाण के जो चार भेद किए गए हैं वे ही चार भेद बौद्ध ग्रंथ उपायहृदय में भी मिलते हैं। (अथ कतिविधं चतुर्विधं प्रमाणम्। प्रत्यक्षमनुमानमुपमानमागमश्चेति - उपायहृदय, पृ० १३) उपायहृदय को यद्यपि चीनी स्रोत नागार्जुन की रचना मानते है, किंतु जहाँ नागार्जुन वैदल्यसूत्र में एवं विग्रहव्यावर्तनी में प्रमाण एवं प्रमेय का खण्डन करते हैं, वहाँ उपायहृदय में वे उनका मण्डन करें, यह संभव प्रतीत नहीं होता, फिर भी यह ग्रंथ बौद्ध न्याय का प्राचीन ग्रंथ होने के साथ-साथ न्यायदर्शन और जैनों की आगमिक प्रमाण व्यवस्था का अनुसरण करता प्रतीत होता है। यहाँ एक विशेष महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि जैनग्रन्थ अनुयोगद्वारसूत्र, बौद्धग्रन्थ उपायहृदय, न्यायदर्शन और सांख्यदर्शन में अनुमान प्रमाण के पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत् - ऐसे तीन भेद भी समान रूप से उपलब्ध होते हैं। यहीं ज्ञातव्य है कि, बौद्धग्रन्थ उपायहृदय, न्यायसूत्र और सांख्यदर्शन में दृष्टसाधर्म्यवत् के स्थान पर 'सामान्यतोदृष्ट' शब्द का उल्लेख हुआ है। ऐसा लगता है कि, भारतीय न्यायशास्त्र के प्रारम्भिक विकास के काल में जैन, बौद्ध, न्याय एवं सांख्य दर्शन में कुछ एकरूपता थी, जो कालांतर में नहीं रही। प्रमाण संख्या को लेकर जहाँ जैन परम्परा में कालक्रम में अनेक परिवर्तन हुए हैं वहाँ बौद्ध परम्परा में उपायहृदय के पश्चात् एक स्थिरता परिलक्षित होती है। उपायहृदय के पश्चात् दिङ्नाग से लेकर परवर्ती सभी बौद्ध आचार्यों ने प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो ही प्रमाण माने हैं। प्रमाणों की संख्या को लेकर जैन परम्परा में हमें तीन प्रकार की अवधारणाएं मिलती हैं। सर्वप्रथम आगम युग में जैन परम्परा में चार प्रमाण स्वीकार किए गए थे। उसके पश्चात् तत्त्वार्थसूत्र (२री-३री शती) में प्रमाण के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ऐसे दो भेद किये गये। सिद्धसेन दिवाकर (चौथी शती) ने अपने न्यायावतार में आगमिक युग के औपम्य को अलग करके तीन प्रमाण ही स्वीकार किए। तत्त्वार्थसत्र में पांच ज्ञानों को प्रमाण कहकर मति और श्रुत ज्ञान को परोक्ष प्रमाण के रूप में तथा अवधि, मन:पर्यय और केवल ज्ञान को प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया था। उमास्वाति का प्रमाणवाद वस्तुतः आगमिक पंच ज्ञानवाद से प्रभावित है। जबकि सिद्धसेन की प्रमाण व्यवस्था आगामिक एवं अन्य दर्शनों के प्रमाणवाद से प्रभावित है। सिद्धसेन के पश्चात् और अकलंक के पूर्व तक हरिभद्र आदि जैन आचार्य प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण ही मानते रहे, किन्तु लगभग आठवीं शताब्दी में अकलंक ने सर्वप्रथम स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को प्रमाण मानकर जैन दर्शन में प्रमाणों की संख्या छ: निर्धारित की। अकलंक ने अपने ग्रंथों में स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को स्वतंत्र प्रमाण सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क भी प्रस्तुत किए हैं, उनके पश्चात सिद्धर्षि, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र आदि जैन आचार्यों ने अपनी-अपनी कृतियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525053
Book TitleSramana 2004 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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