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बौद्ध और जैन प्रमाणमीमांसा - एक तुलनात्म अध्ययन : ९
जैनन्याय में अनाधिगत अर्थात् अगृहीत-ग्राही ज्ञान या अपूर्वज्ञान को प्रमाणलक्षण में सर्वप्रथम स्थान अकलंक ने ही दिया था, उसके पश्चात् माणिक्यनंदी आदि अनेक दिगम्बर जैन दार्शनिक प्रमाणलक्षण में अपूर्व या अनाधिगत शब्द का प्रयोग करते रहे हैं, किन्तु अकलंक के निकटपरवर्ती विद्यानन्द (लगभग ९वीं शती) ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में स्पष्ट रूप से अपूर्व या अनाधिगत विशेषण को प्रमाणलक्षण में व्यर्थ माना है (तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १/१०/७७)। उनके पश्चात् प्रभाचन्द्र (दसवीं शती) ने अपूर्व या अनाधिगत अर्थ के ग्राही ज्ञान को प्रमाणलक्षण निरूपण में एकांतरूप से अव्यर्थ तो नहीं कहा, लेकिन इतना अवश्य कहा है कि प्रमाण कथंचित् ही अपूर्व अर्थ का ग्राही होता है, किन्तु सर्वथा अपूर्व का ग्राही नहीं होता।
___ जहाँ तक धर्मकीर्ति के प्रमाण के अविसंवादक लक्षण का प्रश्न है, यद्यपि सिद्धसेन दिवाकर ने बाधविवर्जित कहकर किसी अर्थ में उसे स्वीकार किया है, किन्तु बाधविवर्जित एवं अविसंवादकता दोनों एक नहीं हैं। बाधविवर्जित होने का अर्थ है स्वतः एवं अन्य किसी प्रमाण का विरोधी या अविसंवादी नहीं होना है, जबकि अविसंवादिता का सामान्य अर्थ है ज्ञान और ज्ञेय में सारूप्य या संगति। जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है कि जैन दार्शनिक अकलंक ने धर्मकीर्ति के इस अविसंवादकता नामक प्रमाण लक्षण को स्वीकार किया है। उनके परवर्ती माणिक्यनन्दी आदि अन्य दिगम्बर जैन आचार्यों ने भी उसका समर्थन किया, किन्तु दिगम्बर विद्वान् विद्यानंद तथा श्वेताम्बर विद्वान् सिद्धर्षि (९वीं शती) ने प्रमाण के अविसंवादिता नामक लक्षण का खण्डन किया है। विद्यानन्द का कहना है कि बौद्धों ने स्वसंवेदना, इन्द्रिय, मानस एवं योगज ऐसे चार प्रकार के प्रत्यक्ष माने हैं, किन्तु बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के अनुसार ये प्रत्यक्ष निर्विकल्पक ही होते हैं। निर्विकल्पक होने से व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) नहीं हो सकते और जो व्यवसायात्मक नहीं है, वह स्वविषय का उपदर्शक भी नहीं हो सकता है और जो स्वविषय का उपदर्शक नहीं हो सकता है वह अर्थ का प्रापक भी नहीं हो सकता है और जो अर्थ का प्रापक ही नहीं है, वह अर्थ से अविसंवादक कैसे हो सकता है? इस प्रकार विद्यानन्द धर्मकीर्ति की प्रत्यक्षप्रमाण की अविसंवादकता का खण्डन कर देते हैं।
___ अनुमान के संदर्भ में भी विद्यानन्द लिखते हैं कि बौद्धों के अनुसार अनुमान भ्रान्त है और यदि अनुमान भ्रान्त है तो फिर वह अविसंवादक कैसे हो सकता है? दूसरे अनुमान का आलम्बन सामान्य है और बौद्ध परम्परा के अनुसार सामान्य, मिथ्या या अवास्तविक है। सामान्य के आलम्बन के बिना अनुमान संभव ही नहीं है, अत: उसके अविसंवादक होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। इस प्रकार विद्यानन्द धर्मकीर्ति के प्रमाण के अविसंवादक नामक लक्षण का उन्हें मान्य प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों ही प्रमाणों से खण्डन कर देते हैं। विद्यानन्द का कहना है कि बौद्ध प्रमाणव्यवस्था में प्रमाण का
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