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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४
दिया गया है। आचार एवं विचार को ही प्रकारान्तर से क्रमश: व्यवहार और सिद्धान्त अथवा क्रिया एवं ज्ञान अथवा धर्म एवं दर्शन कहा गया है।
भारतीय संस्कृति में श्रमण परम्परा की अनेक शाखाएं रही हैं किन्तु वर्तमान मे केवल दो शाखाएं ही दृष्टिगत होती हैं- जैन श्रमण परम्परा एवं बौद्ध श्रमण परम्परा। इन परम्पराओं के मूल में इनका आचार विधान है। जिनके प्रमुख तत्वों की चर्चा संक्षेप में क्रमश: निम्नवत् है -
श्रमण आचार जैन संस्कृति का मूल आधार तथा संयममय योगपूर्ण जीवन का मूल मंत्र है। यही कारण है कि साधु या मुनि योग के सम्पूर्ण स्तरों का सम्यक् रूप से पालन करने में समर्थ होता है। योग हेतु किन-किन नियमों, उपक्रमों आदि की अपेक्षाएं होती हैं वे अनायास ही अभ्यास क्रम में प्राप्त हो जाती हैं। पूर्व विदित है कि श्रावक देशवर्ती होता है और श्रमण सर्वदेशव्रती या सकल चारित्र का पालनकर्ता। श्रमण के २७ मूल गुण१३ और ७० उत्तर गुण वर्णित किए गए जिनका पालन उसके लिए नितान्त आवश्यक है। इन मूल गुणों एवं उत्तर गुणों में श्रमण की चर्या समाहित हो जाती है। तथापि क्रमश: पंचमहाव्रतों, त्रिगुप्तियों, पंचसमितियों आदि का वर्णन समीचीन प्रतीत होता है।१४ पंचमहाव्रत - श्रमण के पाँच महाव्रत इस प्रकार हैं१५ -
१- सर्वप्राणातिपातविरमण (अहिंसा व्रत) - यह प्रथम महाव्रत है। श्रमणों को अहिंसा का सम्पूर्णतया पालन तीन योग एवं तीन करण से करना होता है। इस महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं - ईर्या समिति, १६ मन की अपापकता,१७ वचन शुद्धि,१८ भण्डोपकरणसमिति और अवलोकितपानभोजन।
२- सर्वमृषावाद विरमण ९ (सत्य व्रत) - श्रमण को अहिंसा की भाँति ही सत्य महाव्रत का पालन भी तीनों योग एवं करणों से करना होता है इस महाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं - अनुवीची भाषण, क्रोध त्याग, लोभ त्याग, भय त्याग और हास्य त्याग।
३- सर्वअदत्तादान विरमण (अस्तेय व्रत) - यह अचौर्य महाव्रत है। बिना अनुमति से श्रमण को एक तिनका भी ग्रहण करना वर्जित है। इस महाव्रत की भी पाँच भावनाएँ हैं - विचारपूर्वक वस्तु या स्थान की याचना, गुरु की आज्ञा से भोजन, परिमित पदार्थ ग्रहण, पुन:-पुन: पदार्थों की मर्यादा और साधार्मिक अवग्रह याचन।
४- सर्वमैथुन विरमण (ब्रह्मचर्य व्रत) - अन्य महाव्रतों की भाँति ही इस महाव्रत का पालन साधु को मन, वचन, काय एवं कृतकारित अनुमोदना पूर्वक करना
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