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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १.६
जनवरी-जून २००४ ।
लाढ़ प्रदेश में महावीर
रमा कान्त जैन*
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वर्धमान महावीर को अपने बारह वर्ष के साधनाकाल में अनेक कष्टों, यातनाओं और उपसर्गों का सामना करना पड़ा था जिन्हें उन्होंने चुपचाप बिना किसी प्रतिवाद के समताभाव से सहन किया। अपनी साधना के पाँचवें वर्ष में अनेक क्षेत्रों में विहार करते हुए महावीर गोशालक के साथ जब कलंबुका सनिवेश जा रहे थे तब मार्ग में उस सन्निवेश के अधिकारी कालहस्ती तस्कारों का पीछा करते हुए उधर से जाते हुए मिले। कालहस्ती महावीर और गोशालक को पहचानते नहीं थे। कहीं वे ही तो तस्कर नहीं हैं, यह सोचकर उसने इन से परिचय पूछा। महावीर मौन रहे। गोशालक भी, देखें आगे क्या होता है, इस कुतूहल से चुप रहा। अधिकारी ने उन दोनों को तस्कर समझा और अनेक यातनाएं दीं। पर उन्होंने मौन भंग नहीं किया। तब उसने उन्हें रस्सियों से जकड़कर अपने ज्येष्ठ भ्राता मेघ के पास भेज दिया। संयोग की बात मेघ ने महावीर को उनकी गृहस्थावस्था में क्षत्रियकुण्ड में देखा था। उनकी स्मृति जाग उठी। उन्होंने महावीर को पहचान लिया। तुरन्त उन्हें व गोशालक को बन्धन-मुक्त कर अज्ञानवश हुए अपराध के लिये उनसे क्षमायाचना की।.
वहाँ से बन्धन-मुक्त हो महावीर ने अपने कर्मों की विशेष निर्जरा के सम्बन्ध में गहन विचार-मंथन किया। मलयगिरि कृत आवश्यकवृत्ति (२८१/१) और महावीर चरियं (६/१९५) के अनुसार महावीर ने कर्मों की विशेष निर्जरा हेतु लाढ़ प्रदेश की ओर प्रस्थान किया। आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्याय ९, उद्देश्य ३ की गाथा २ में इस प्रदेश को 'अह दुच्चर-लाढ़-मचारी' तथा उसके अध्याय ६, उद्देश्य ३, गाथा ६ में 'दुच्चराणि तत्थ लाडेहिं' लिखा है और इस प्रकार उस प्रदेश को विचरण के लिये दुष्कर बताया है। डॉ० जगदीश चन्द्र जैन ने प्रेमी-अभिनन्दनग्रन्थ (अक्तूबर १९४६) में प्रकाशित अपने लेख 'जैन-ग्रन्थों में भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैन-धर्म का प्रसार' में आधुनिक हुगली, हावड़ा, बांकुरा, बर्दवान और मिदनापुर के पूर्वीय भाग को प्राचीन लाढ़ देश बताया है और कोडिवरिस (कोटिवर्ष) को उसकी राजधानी। आचारांग 'प्रथम श्रुतस्कन्ध' के अध्याय ६, उद्देश्य ३ की गाथा ६ में उस प्राचीन लाढ़ देश के दो भाग ‘वज्ज भूमिं च सुम्भ-भूमिं च' अर्थात् वज्रभूमि * ज्योति निकुंज, चारबाग, लखनऊ - २२६००४
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