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________________ ५० : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४ उद्यानों, दीर्घिकाओं, पण्यस्थलों, मनोहर अंगनाओं, रास्ते के उद्दाम प्राकृतिक दृश्यों और लुभावनी वस्तुओं के ललित वर्णनों को मेघदूत से उद्धृत कर यह सिद्ध किया गया है कि इन सभी सांसारिक भौतिक आकर्षणों के बीच जैन मुनि निरासक्त ही रहता है। अत: पार्श्व के हृदय में शान्ति और निरासक्ति की एक अपूर्व आह्लादमयी धारा है। आत्मा जागृत है, अत: तदनरूप कार्यों की शक्ति से अन्तरंग और बहिरंग शत्रुओं का नाश होता है। शत्रु को अपनी भूल मानकर हृदय से क्षमा याचना करनी पड़ती है। संसार के सभी प्राणी ऐसी महान आत्मा के नाम मात्र लेने से भवोच्छेदन की आशा बाँध रहे हैं। भक्ति के रस का संचार हो रहा है। मेघदूत के अनुसार शिवचरणों में भक्ति रखने वाले करण विगम के अनन्तर शिव के गणों में स्थिर पद प्राप्त करते हैं, तो पाश्र्वाभ्युदय में पार्श्व भी करणविगम की इस प्रक्रिया में लगे हैं, जिसका अभिप्राय है इन्द्रियों को बाह्य विषयों की ओर हटाकर अन्तर्मुखी करना।२२ प्रो० के० बी० पाठक ने आचार्य जिनसेन 'द्वितीय' के सम्बन्ध में सच ही कहा है कि पार्वाभ्युदय संस्कृत साहित्य की एक अद्भुत रचना है। वह अपने युग की साहित्यिक रुचि की उपज और आदर्श है। भारतीय कवियों में सर्वोच्च स्थान सर्वसम्मति से कालिदास को मिलता है तो भी मेघदूत के कर्ता की अपेक्षा जिनसेन अधिक प्रतिभाशाली कवि माने जाने योग्य हैं। __ अतः पाश्र्वाभ्युदय एक उत्कृष्ट एवं अद्वितीय जैन संदेश काव्य है, जिसमें बाह्य सांसारिक क्षण भंगुरता के उदाहरणस्वरूप मेघदूत का सुन्दर प्रयुक्तीकरण, प्रस्तुतीकरण हुआ है, जो मनमोहक है और अन्ततोगत्वा जैन संदेश के प्रभाव को मानसपटल पर अमिट रूप से अंकित करने में पूर्ण सक्षम है। जिनसेन द्वारा मुनि पार्श्व और मेघदूत२३ में अपनी प्रिया से मिलन की आकांक्षा रखने वाले यक्ष का चित्रण कर एक ही स्थल पर दो प्रकार के व्यक्तित्व को प्रस्तुत किया गया है ताकि, मानव अपनी तर्क बुद्धि से विचार कर अपने लिए पार्श्वमुनि की भाँति श्रेयस्कर मार्ग का वरण कर सके और सांसारिक भोग, काम-वासना से मेघदूत के यक्ष की भाँति आकृष्ट न हो। निर्ग्रन्थ मुनि का यह संदेश कठोपनिषद में यमराज द्वारा नचिकेता को दिए गए संदेश के समान है, निम्न श्लोक उघृत है - श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ, संपरीत्य विविनक्ति धीरः।२४ श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते, प्रेयो मन्दो योगक्षेमावृणीते।। अर्थात श्रेय और प्रेय दोनों मनुष्य को प्राप्त होते हैं, किन्तु विवेकी पुरुष उन दोनों का भली भाँति विचार कर दोनों के भेद को पहचान लेता है। जिसमें से विवेकी पुरुष प्रेय की उपेक्षा कर श्रेय का वरण करता है। प्रस्तुत मन्त्र में यम ने नचिकेता के प्रति श्रेय और प्रेय का विश्लेषण प्रस्तुत किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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