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________________ ४० : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४ वह काया में रहकर भी काया से अलग-थलग आत्मभाव में रहता है। यही भाव कायोत्सर्ग का भाव है। इस प्रकार का कायोत्सर्ग ही सभी प्रकार के दु:खों को नष्ट करने वाला है।१७ कायोत्सर्ग को अनेक प्रयोजन से सम्पन्न किया जाता है, जिसमें क्रोध, मन, माया और लोभ का उपशमन इसका मुख्य प्रयोजन है। अमंगल, विघ्न और बाधा के परिहार के लिए भी कायोत्सर्ग का विधान है। जैन साधना में इसे स्वतंत्र स्थान दिया गया है जो इस भावना को अभिव्यक्त करता है कि प्रत्येक साधक को प्रात: और सन्ध्या के समय यह चिन्तन करना चाहिए - यह शरीर पृथक है और मैं पृथक हूँ। मैं अजर, अमर और अविनाशी हूँ। अन्तिम आवश्यक प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान का अर्थ है - त्याग करना। अविरति और असंयम के प्रतिकूल रूप में मर्यादा के साथ प्रतिज्ञा ग्रहण करना प्रत्याख्यान है। यदि और स्पष्ट शब्दों में निरूपण करें तो - मर्यादा के साथ अशुभ योग से निवृत्ति और शुभ योग में प्रवृत्ति का आख्यान करना प्रत्याख्यान है। आचार्य भद्रबाहु के अनुसार, प्रत्याख्यान से संयम होता है। संयम से आश्रव का निरुन्धन होता है और आश्रव के निरुन्धन से तृष्णा का अन्त हो जाता है। तृष्णा के अन्त से उत्तम उपशम भाव समुत्पन्न होता है जिससे प्रत्याख्यान विशुद्ध होता है। उपशम भाव की विशुद्धि से ही चारित्र धर्म प्रकट होता है। चारित्र से कर्म निजीर्ण होता है, जिससे केवल ज्ञान और केवल दर्शन का दिव्य लोक जगमगाने लगता है और शाश्वत मुक्ति रूपी सुख प्राप्त होता है।१८ यद्यपि सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण तथा कायोत्सर्ग द्वारा आत्मशुद्धि की जाती है, तथापि अन्तर्मानस में आसक्ति के प्रवेश का भय बना रहता है। एतदर्थ षडावश्यक में प्रत्याख्यान का विधान अभिहित है। इससे साधक शुभयोग में प्रवृत्त होता है और सद्गुणों को प्राप्त करना है। इस प्रकार प्रत्याख्यान में साधक मन, वचन और काय की दुष्ट प्रवृत्तियों को रोककर शुभ प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होता है। आश्रव का पूर्णरूपेण निरुन्धन होने से साधक पूर्ण निस्पृह हो जाता है, जिससे उसे शान्ति प्राप्त होती है। इसमें साधक जिन पदार्थों को ग्रहण करने की छूट रखता है, उन पदार्थों को भी ग्रहण करते समय आसक्त नहीं होता। प्रत्याख्यान से साधक के जीवन में अनासक्ति की विशेष जागृति होती है। जैन-धर्म में प्रतिपाद्य षडावश्यक के प्रासंगिकत्व को सुस्पष्ट करने के पूर्व उन पक्षों पर दृष्टिपात् करना अनुचित नहीं होगा, जिसके द्वारा मानव मूल स्वभाव से च्युत होता है। सम्पूर्ण आचार-दर्शन का सार समत्व-साधना है। समत्व हेतु प्रयास ही जीवन का सारतत्त्व है। सतत् शारीरिक एवं प्राणमय जीवन के अभ्यास के कारण चेतना बाह्य उत्तेजनाओं एवं संवेदनाओं से प्रभावित होने की प्रवृत्ति विकसित कर लेता है। परिणामस्वरूप बाह्य वातावरणजन्य परिवर्तनों से प्रभावित होकर अपने सहज स्वभाव 'समत्व' का परित्याग कर देता है और संसार के प्रति ममत्व-भाव को पुष्ट करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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