SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-धर्म में प्रतिपादित षडावश्यक की समीक्षा और इसकी प्रासंगिकता : ३९ पाप को प्रकट करना आवश्यक माना है। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रतिक्रमण जीवनशुद्धि का श्रेष्ठतम उपाय है तथा सभी आध्यात्मिक परम्पराओं में किसी न किसी रूप में इसका निरूपण हुआ है। यहाँ पर एक स्वभाविक जिज्ञासा समुत्पन्न होती है कि प्रतिक्रमण की साधना में भूमिका क्या है ? इस जिज्ञासा - निवृत्ति के समर्थन में कहा जा सकता है - साधक साधना करते समय कषायों के वशीभूत होकर साधनाच्युत हो जाता है । कषायों के वशीभूत साधक अपने स्वरूप का परित्याग कर, पर-स्वरूप को ग्रहण करता है। कषायों के निमित्त परस्वरूप का ग्रहण ही विषमता को जन्म देता है। परिणामस्वरूप साधक अपने आध्यात्मिक आदर्श को भूल जाता है। कषायों के निमित्त उत्पन्न होने वाले दोषों के निवारणार्थ प्रतिक्रमण आवश्यक की प्रस्थापना हुई। इसमें साधक अपनी भूलों को सुधारकर अपनी वास्तविक स्थिति का परिज्ञान प्राप्त कर सकता है। जब साधक अपने द्वारा कृत्य दोषों का गहराई से अन्तनिरीक्षण करता है तभी उसे अपनी वास्तविकता अर्थात् भूल का परिज्ञान होता है। परिणामस्वरूप अपने दोषों का निराकरण कर साधक साधना के मार्ग पर दृढ़ता से आगे बढ़ता जाता है। षडावश्यक में प्रतिक्रमण के पश्चात् कायोत्सर्ग का विधान है। कायोत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ है - शरीर का उत्सर्ग करना। यहाँ शरीर त्याग का अर्थ है - शारीरिक चंचलता एवं देहासक्ति का त्याग। कायोत्सर्ग में गहराई से चिन्तन कर उन दोषों को नष्ट करने का उपक्रम किया जाता है, जो प्रतिक्रमण में शेष रह जाते हैं। इसमें साधक बहिर्मुखी स्थिति से निकलकर अर्न्तमुखी स्थिति में पहुँचता है। प्रतिक्रमण में पापों की आलोचना हो जाने से चित्त पूर्ण रूप से निर्मल हो जाता है, जिससे साधक धर्मध्यान और शुक्लध्यान में एकाग्रता प्राप्त कर लेता है । इसीलिए कायोत्सर्ग को प्रतिक्रमण के पश्चात् रखा गया है इसका प्रधान उद्देश्य है आत्मा का सन्निध्य प्राप्त करना और सहज गुण है मानसिक संतुलन बनाए रखना। मानसिक संतुलन बनाए रखने से बुद्धि निर्मल और शरीर पूर्ण स्वस्थ रहता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी कायोत्सर्ग का अत्यधिक महत्त्व है, क्योंकि मन, शरीर और मस्तिष्क का गहरा सम्बन्ध है । जब तीनों में सामन्जस्य नहीं होता है तभी तनाव व्युत्पन्न होता है। आचार्य भद्रबाहु के अनुसार वही कायोत्सर्ग विशुद्ध होता है, जिसमें देव, मानव और तिर्यञ्च सम्बन्धी सभी प्रकार के उपसर्ग उपस्थित होने पर भी साधक उन्हें समभावपूर्वक सहन करे। १६ आचार्य जिनदास गणि महत्तर ने कायोत्सर्ग के दो प्रकार बताए हैं- द्रव्य कायोत्सर्ग और भाव कायोत्सर्ग। द्रव्य कायोत्सर्ग - - सर्वप्रथम शरीर का निरोध किया जाता है। शरीरिक चंचलता तथा ममता का परित्याग कर जिन-मुद्रा में स्थित कायचेष्टा का निरुन्धन करना, काय कायोत्सर्ग है। तत्पश्चात् साधक धर्मध्यान और शुक्लध्यान में रमण करता है। मन को पवित्र विचार और संकल्प से बांधता है, जिससे उसको किसी भी प्रकार की शारीरिक वेदना का अनुभव नहीं होता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy