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जैन दर्शन में निहित वैज्ञानिक तत्व : २५
में निबद्ध गणितीय ग्रन्थ६ में दृष्टव्य है। विस्तार भय से हम यहाँ उन सन्दर्भो की चर्चा नहीं कर रहे हैं। ऐसे ग्रन्थ भी ४-५ हैं एवं अति महत्वपूर्ण हैं।
हम यहाँ जैन गणित की कतिपय मौलिकताओं को सूचीबद्ध कर रहे हैं।
(१) जैनाचार्यों ने संख्या का प्रारम्भ २ से किया है। यद्यपि वे गणना की प्रक्रिया १ से शुरू करते हैं। उनकी दृष्टि में संख्या समूह की बोधक होती है एवं १ (एक) वस्तु व्यावहारिक दृष्टि से कोई समूह नहीं बनाती। इस प्रकार सर्वाधिक छोटी संख्या, जिसे जघन्य संख्यात कहा है, वह २ है। ऐसी संख्यायें जिनके वर्ग में से स्वयं संख्या को घटाने पर संख्या से अधिक शेष बचता है का एक अन्य वर्ग कृति बनाया है संक्षिप्ततः
[ गिनतियाँ - १,२,३,४,५.......... II संख्यायें - २,३,४,५,६.......... III कृतियाँ - ३,४,५,६,७.......
(२) जैनचार्यों ने स्थानमान की अत्यन्त विस्तृत सूचियाँ दी हैं जो दाशमिक क्रम पर आधारित हैं। जिनभद्रगणि (७वीं श०ई०) के विशेषावश्यकभाष्य में उपलब्ध आवश्यकनियुक्ति के उल्लेख से ई०पू० में जैन परम्परा में शून्य के प्रयोग एवं दाशमिक पद्धति का उपयोग पुष्ट होता है। तीन प्रमुख जैन आचार्यों द्वारा प्रस्तुत स्थानमान की सूची के पदों की संख्या निम्न प्रकार है -
श्रीधराचार्य (७९९ ई०) १८ पद महावीराचार्य (८५० ई०) २४ पद राजादित्य (११५० ई०) ४० पद ये सूचियाँ समकालीन अन्य सूचियों की अपेक्षा विस्तृत एवं भिन्न हैं।
(३) जैनाचार्यों ने संख्याओं को व्यक्त करने हेतु अनेक विधियों का प्रयोग किया है। यथा -
I अंकों द्वारा II अक्षर संकेतों द्वारा III शब्द संकेतों द्वारा
प्रत्येक अंक अथवा संख्या को व्यक्त करने वाले अनेक अक्षर एवं शब्द नियत हैं। इन शब्दों का चयन जैन वाङ्मय से किया गया है यथा रत्न-३, गति-४, इन्द्रियाँ५, द्रव्य-६, तत्व-७, गुणस्थान-१४, तीर्थंकर २४। अक्षरों द्वारा अंकों को लिखने की पद्धति गोम्मटसार में उपलब्ध है।१८
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