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________________ = श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६ / जनवरी - जून २००४ है । प्राचीन काल में विश्व - विज्ञान दार्शनिक प्रस्थानों का एक नियत अंग था। दर्शन के इस अंश से ही परवर्ती वैज्ञानिक चिन्तन ने अपनी प्रेरणा पाई है। बहुत दिनों तक विज्ञान को प्रकृति-दर्शन कहा जाता था। न्यूटन ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ को प्राकृतिक दर्शन के गाणितिक सिद्धांत नाम दिया है। पश्चिम में जैसे-जैसे आधुनिक काल में विज्ञान का विकास हुआ, दर्शन ने प्राकृतिक विश्व के सम्बन्ध में अपने को विज्ञान का अनुचर मात्र मान लिया है। आजकल बहुत से दार्शनिक कहते हैं कि दर्शन का वस्तु-सत्यों से सम्बन्ध नहीं, उनके अनुसार दर्शन का ठीक विषय ज्ञान अथवा मूल्यों की मीमांसा है। दूसरी ओर विश्व के स्वरूप के सम्बन्ध में परिकल्पनाएँ वैज्ञानिक चिन्तन में नाना रूप से प्रकट हुई हैं और इन्हें दार्शनिक प्रवृत्तियों से अलग नहीं माना जा सकता है। इस परिस्थिति का परिणाम एक विचित्र उलझन में है। विशुद्ध दार्शनिकगण विज्ञान की सहायता के बिना विश्व के स्वरूप का निर्धारण नहीं कर सकते और न विशुद्ध वैज्ञानिक ही दर्शन की सहायता के बिना अपने परम सिद्धान्तों को व्यवस्थित और संगत रूप दे सके हैं। फलतः विज्ञान और दर्शन परस्पर पूरक है। १६ भारत सरकार की इस नयी योजना ने विज्ञान के शिक्षकों को दर्शन को पढ़ने की ओर प्रेरित किया है। इससे हमारे प्राचीन साहित्य में निहित विज्ञान प्रकाश में आयेगा । प्राचीन जैन साहित्य यथा श्वेताम्बर परम्परा मान्य अंग, उपांग साहित्य, उन पर लिखी गई टीकाओं, तथा दिगम्बर जैनागमों प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, तत्वार्थसूत्र एवं उस पर लिखी टीकाओं, षट्खंडागम, कषाय प्राभृत एवं उनकी टीकाओं यथा धवला, जयधवला, उन पर समाधारित ग्रंथों गोम्मटसार ( जीवकांड, कर्मकांड) आदि तथा खगोलीय ग्रंथों तिलोयपण्णत्ती, त्रिलोकसार, जम्बुद्दीवपण्णत्तिसंगहो, लोक विभाग आदि में विज्ञान की विविध शाखाओं का ज्ञान उपलब्ध है। इसके अलावा भी एक लम्बी सूची है। इस क्रम में निम्नांकित विषयों पर सामग्री संकलित की जा सकती है। १. गणित एवं सांख्यिकी २. ज्योतिर्विज्ञान एवं खगोलविज्ञान (भूगोल सहित ) ३. भौतिक विज्ञान (तंत्र-मंत्र सहित) ४. रसायन विज्ञान ५. प्रबन्ध विज्ञान एवं अर्थशास्त्र ६. जीव विज्ञान ७. वनस्पति शास्त्र ८. पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी विज्ञान ९. आहार विज्ञान (भैषज विज्ञान एवं सूक्ष्म जीव विज्ञान सहित ) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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