________________
साहित्य सत्कार : १९१
सद्गुरु महिमा, लेखक - आचार्यश्री शिवमुनि जी म०सा०, प्रका० - प्रज्ञा ध्यान एवं स्वाध्याय केन्द्र, मुम्बई, संस्करण-२००३, आकार-डिमाई, पृष्ठ - ११२, मूल्य - ५०/
"सद्गुरु महिमा" नामक प्रस्तुत पुस्तक आचार्यश्री शिवमुनि जी म०सा० के प्रवचनों का निबन्धात्मक शैली में प्रस्तुतीकरण है। इस पुस्तक में कुल ६ प्रवचनों का संकलन-सद्गुरु की पहचान; आराध्यक्रम : देव, गुरु, धर्म; अरिहंतो मह देवो; सद्गुरु की महिमा अनन्त; सद्गुरु का संग : उपासना का रंग; प्रेम का विशुद्धतम स्वरूप: आत्मप्रेम शीर्षक से हुआ है।उसमें देव, गुरु और धर्म की महिमा, गुरु की गुण-गौरव, सद्गुरु के लक्षण, जीवन में सद्गुरु की आवश्यकता आदि बिन्दुओं पर गहन रूप से विचार किया गया है। पुस्तक की भाषा शैली रोचक, सरल और प्रवाहमयी है जो सहज ही हृदय में बैठ जाती है। यह छोटी सी पुस्तक गागर में सागर कहावत को चरितार्थ करती है। आशा है पाठकगण इसका अध्ययन कर लाभान्वित होंगे। पुस्तक पठनीय और संग्रहणीय है।
__ - राघवेन्द्र पाण्डेय (शोध छात्र) भारतीय धर्मों में मुक्ति विचार (जैन दर्शन के विशेष सन्दर्भ में), लेखक - आचार्य श्री शिवमुनि जी० म०सा०, हिन्दी अनुवादक - डॉ० भागचन्द्र जैन “भाष्कर", प्रका०- प्रज्ञा ध्यान एवं स्वाध्याय केन्द्र, मुम्बई, संस्करण - तृतीय, आकार - डिमाई, पृष्ठ- २६०
भारतीय धर्म दर्शन का मुख्य लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है। मोक्ष प्राप्ति ही परम पुरुषार्थ है। आचार्य शिवमुनि जी द्वारा प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में मोक्ष का विवेचन बहुत ही सुन्दर ढंग से हुआ है। लेखक ने वैदिक, जैन, बौद्ध एवं सिख धर्म को दृष्टि में रखकर अपने गहन अध्ययन, सम्यक् चिन्तन, मनन एवं तटस्थ समीक्षा से तुलनात्मक निष्कर्ष प्रस्तुत किया है। पुस्तक कुल आठ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में जैन परम्परा : एक सिंहावलोकन, द्वितीय में आत्मा का सिद्धान्त, तृतीय में कर्म और पुनर्जन्म, चौथे में मुक्ति का जैन सिद्धान्त, पांचवें में मुक्ति का वैदिक सिद्धान्त, छठे में बौद्ध निर्वाण सिद्धान्त, सातवें में मुक्ति का सिख सिद्धान्त और आठवें में उपसंहार है। पुस्तक में मुक्ति का उत्कृष्ट तुलनात्मक अध्ययन है। अनुवाद भी अर्थ को ध्यान में रखकर किया गया है। भाषा शैली सरल है। सामान्य पाठकों के साथ-साथ यह पुस्तक शोधार्थियों के लिए भी अत्यन्त ही उपयोगी है! यह पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय होने के साथ-साथ अपने जीवन में आत्मसात करने योग्य है। आशा है सुधी पाठक इस पुस्तक को एक बार अवश्य पढ़ेंगे और लाभान्वित होंगे।
___ . राघवेन्द्र पाण्डेय (शोध छात्र)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org