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________________ जैन-दर्शन में रत्नत्रय : ११ षड्दर्शनसमुच्चय की ५४वीं कारिका की गुणरत्न-कृत टीका। दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र को मोक्ष का मार्ग कहा गया है - दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:। त्रिरत्नों में दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र को व्यवस्थित क्रम में रखा गया है। सम्यक् दर्शन का तात्पर्य है- जैन-शास्त्रों तथा आचार्यों के उपदेशों में दृढ़ विश्वास, जिससे समस्त सन्देह दूर हो जायँ - वे सन्देह जो हमारी आध्यात्मिक यात्रा में बाधक हो रहे हैं। सर्वदर्शनसङग्रह में सम्यग्दर्शन का स्वरूप इस प्रकार प्रतिपादित किया गया है - "येन रूपेण जीवाद्यों व्यवस्थितस्तेन रूपेणार्हता प्रतिपादिते तत्त्वार्थे विपरीताभिनिवेशरहित्वाद्यपरपर्यायं श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।" जो वस्तु जिस रूप में विद्यमान है, उसी प्रकार जिनदेव द्वारा प्रतिपादित तत्त्वार्थ में विपरीत अभिनिवेश का परित्याग करके श्रद्धा का सम्पादन करना सम्यक् दर्शन है। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है - "तत्त्वार्थे श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्।" यह भी कहा गया है - रुचिर्जिनोक्ततत्त्वेषु सम्यक् श्रद्धानमुच्यते। जायते तनिसर्गेण गुरोरधिगमेन वा।। - सर्वदर्शनसङ्ग्रह के आर्हतदर्शनप्रकरण में उद्धृत। जिनदेव द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों में रुचि का होना सम्यक् श्रद्धान (दर्शन) है। वह या तो निसर्ग से उत्पन्न होता है या गुरूपदेश से। परोपदेशनिरपेक्ष आत्मस्वरूप ज्ञान निसर्ग कहा जाता है और व्याख्यानादि रूप परोपदेशजनित ज्ञान अधिगम। जिस स्वभाव से जीवादि पदार्थ व्यवस्थित हैं, उसी स्वभाव से मोह तथा संशय से रहित होकर उन्हें जानना सम्यक ज्ञान है। तत्त्वों का उनकी अवस्था के अनुरूप संक्षेप में या विस्तार से जो ज्ञान होता है, उसे सम्यग्ज्ञान कहा गया है - . यथावस्थिततत्त्वानां संक्षेपाद् विस्तरेण वा। योऽवबोधस्तगत्राहुः सम्यग्ज्ञानं मनीषिणः।। - सर्वदर्शनसङ्ग्रह, आर्हतदर्शनप्रकरण। * सम्यक् ज्ञान के पाँच प्रकार हैं - मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय तथा केवल। ज्ञान के आवरण के नष्ट हो जाने पर इन्द्रिय तथा मन के द्वारा वस्तु का जो यथार्थ ज्ञान है, वह मति है। मति- जनित स्पष्ट ज्ञान को श्रुत कहा गया है। पदार्थों का अतीन्द्रिय ज्ञान अवधि है। दूसरे के मन में विद्यमान विचार को स्फुट रूप में जानने वाला ज्ञान मन:पर्यय है। जिसके लिए तपस्वी तपस्या करते हैं, जो अन्य प्रकार के किसी भी ज्ञान से असंसृष्ट है, वह केवल ज्ञान है। विज्ञान अपना तथा दूसरों का प्रकाशक है। बाधा से रहित होने पर वह प्रमाण कहा जाता है - विज्ञानं स्वपराभासि प्रमाणं बाधवर्जितम्। प्रत्यक्षञ्च परोक्षञ्च द्विधा मेयविनिश्चयात्।। - सर्वदर्शनसमह, आर्हतदर्शन प्रकरण।। Jain Education International For Private & Personal Use Only rwww.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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