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________________ ११४ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४ वर्षावास में भिक्षुणी नियम - जैनों या बौद्धों में भिक्षुओं की अपेक्षा भिक्षुणियों को इस काल में कुछ विशेष नियमों से बाधाँ गया था। भिक्षुओं की तरह इनके लिए भी वर्षावास अनिवार्य था लेकिन भिक्षुणियों को अकेले समय व्यतीत करना निषिद्ध था। जैन भिक्षुणी को प्रवर्तिनी के साथ कम से कम चार साध्वियों की उपस्थिति में रहना होता था५ जबकि बौद्ध भिक्षुणी को निर्धारित अष्टगुरु नियम का पालन आवश्यक था।१६ भिक्षा नियम - महावीर के अनुयायी श्रमणों द्वारा वर्षावास व्यतीत करते समय भिक्षा के लिए कुछ विशेष नियमों का पालन किया जाता था। इनसे यह अपेक्षा थी कि जब भी आहार की इच्छा हो उन्हें आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, गणि, गणधर, गणावच्छेदक या प्रमुख भिक्षु से आज्ञा लेकर ही जाना चहिए।१" इस समय भिक्षुओं को यह भी आदेश था कि संघ को सूचना दिये बिना अशन, पान, खादिम, स्वादिम, चार प्रकार का आहार भिक्षा में नहीं लेना चाहिए।१८ तपस बल के आधार पर भिक्षुओं को भोजन या जल ग्रहण के लिए गृहस्थ कुल की ओर जाने की संख्या भी निर्धारित थी।१९ नित्यभोजी एकबार षष्ठभक्त - दो बार अष्टमभक्त - तीन बार विकृष्टभक्त - इच्छानुसार बौद्धों में इस काल में भिक्षा के सम्बन्ध में अलग नियम ज्ञात नहीं होते हैं। वर्षावास समाप्ति काल - बौद्धों ने वर्षावास की अन्तिम पूर्णिमा को प्रवारण कहा है।२० इस दिन भिक्षुओं एवं भिक्षणिओं को आमन्त्रित कर अनुरोध किया जाता था कि वे वर्षावास में हुए दृष्ट, श्रुत तथा परिशंकित अपराधों की संघ को जानकारी करायें। इसमें भिक्षुओं की उपस्थिति अनिवार्य थी। इसका मूल उद्देश्य भिक्षु-भिक्षुणी से उन पापकर्मों की स्वीकृति कराना था जो चार माह सह-निवास करने में सम्भावी था।२१ वर्षावास के पश्चात कार्तिक मास में कठिन नामक उत्सव आयोजित होता था।२२ कठिन वस्त्र ऐसे भिक्षु या भिक्षुणी को दिया जाता था जिसके पास चीवर की कमी हो और जिसने वर्षावास सम्यक रूप से व्यतीत किया हो। यह वर्ष में एक बार वर्षावास के पश्चात् आयोजित होता था। निर्ग्रन्थों में वर्षावास की समाप्ति के पश्चात इस तरह आयोजन नहीं दीखता। संभवत: अपरिग्रह महाव्रत के कारण श्वेताम्बर परम्परा में अधिक वस्त्र निषिद्ध था, दूसरे जैन धर्म की दिगम्बर परम्परा वस्त्रहीन थी। जैन भिक्षु वर्षावास के पश्चात् विहार पर निकल जाते थे और जनसामान्य को दान-तप आदि की ओर उन्मुख करने का प्रयत्न करते थे। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525052
Book TitleSramana 2004 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2004
Total Pages298
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size13 MB
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