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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४
की भाँति हैं जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता। सृष्टि इसी चक्र से जीव को गुजार कर उसके विकास का मार्ग प्रशस्त करती है। जीव का पूर्ण विकास एक जन्म में संभव नहीं है इसलिए सृष्टि में कई जन्मों की व्यवस्था है। मृत्यु विकास का एक सोपान है। इसलिए मृत्यु एक अनिवार्य एवं आवश्यक सच्चाई है जिससे प्रसन्न होना चाहिए। दुःख का इसमें कोई कारण ही दिखाई नहीं देता। ____योगवासिष्ठ में 'निर्दिष्ट योग' एक साथ ही मृत्यु भी है और जन्म भी। हमें अपने वर्तमान रूप को मृत्यु देनी होती है तभी नवीन प्रस्फुटित होता है क्योंकि जब तक मरेंगे नहीं तब तक कुछ नवीन कैसे उत्पन्न हो सकता है? योगवासिष्ठ के अनुसार नूतन तत्त्व हमारे अन्दर ही है - केवल प्रच्छन है। हम उस नूतन को लाने के लिए बीज जैसे हैं। बीज को पल्लिवित होने के लिए गिरना ही होता है, धरती में मिलकर उसमें विलीन होना ही होता है। जब तक बीज मरने को तैयार न हो, तब तक जन्म ले नहीं सकता। अत: हमारे वर्तमान स्वरूप की मृत्यु ही हमारा नवजीवन बन जाती है। सन्दर्भ : १अ. आशापाशशताबद्धा वासनाभावधारिण:।
कायात् कायमुपायान्ति वृक्षावृक्षमिवाऽण्डजा:।। (योगवासिष्ठः ४/४३/२६)
सम्पादक और हिन्दी अनुवादक - महाप्रभुलाल गोस्वामी। १ब. काले काले चिता जीवस्त्वन्योऽन्यो भवति स्वयम्। भाविताकारवानन्तर्वासनाकलिको
दयात्।। वही, ६/१/५१/३९। २. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे।
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ॥ रत्नकरण्डकश्रावकाचार, पं०
पन्नालाल 'वसन्त', वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन, दिल्ली १९७२, ५/१। ३. आउरपच्चक्खाणं (दस पयण्णा), गाथा। ११, पृष्ठ-५-६ उद्धृत - रज्जनकुमार,
समाधिमरण, वाराणसी २००२ ई० पृष्ठ ४।। ४. तरुदलमिव परिपक्वं स्नेहविहीनं प्रदीपमिव देहम् ।
स्वयमेव विनाशोन्मुखमवबुध्य करोतु विधिमन्त्यम् ।। उपासकाध्ययन, ८९१
संपा० - पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी १९६४ ५. ज्ञानिन् भय भवेत्कस्मात् प्राप्ते मृत्यु महोत्सवे।
स्वरूपस्थः पुरंयाति देहीदेहांतर स्थिति ॥ मृत्युमहोत्सव, ३, श्री अखिल विश्व
जैन मिशन, अलीगंज, एटा १९५८। 6. Dr. Bhagavan Das, Mystic Expriences, Tales of yoga and Vedanta
from the yogavasishtha by Fourth Ed. 1988, Page - 93.
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