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: श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६ / जनवरी- जून २००४
गुफा निर्माण की कला एलोरा में अपने चरम उत्कर्ष पर है। यह स्थान यादव नरेशों की राजधानी देवगिरि (दौलताबाद) से १६ मील दूर है और यहाँ का शिलापर्वत अनेक गुफा मन्दिरों से अलंकृत है। यहाँ बौद्ध, हिन्दू और जैन, तीनों सम्प्रदायों के शैल मन्दिर बड़ी सुन्दर प्रणाली से बने हुए हैं। यहाँ पाँच जैन गुफाएँ हैं जिनमें से तीन - छोटा कैलाश, इन्द्रसभा और जगन्नाथसभा कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। छोटा कैलाश एक ही पाषाण शिला को काटकर बनाया गया है और उसकी रचना कुछ छोटे आकार में कैलाश मन्दिर का अनुकरण करती है। समूचा मन्दिर ८० फीट चौड़ा एवं १३० फीट ऊँचा है, मण्डप लगभग ३६ फीट लम्बा-चौड़ा है और उसमें १६ स्तम्भ हैं | इन्द्रसभा नामक गुफा मन्दिर की रचना भी इस प्रकार की है कि पाषाण में बने द्वार से भीतर जाने पर एक विशाल चौकोर प्रांगण है, जिसके मध्य में पाषाण से निर्मित द्राविड़ शैली का एक चैत्यालय है। इसके सम्मुख दाहिनी ओर एक हाथी की मूर्ति है और उसके सम्मुख ३२ फीट ऊँचा ध्वज स्तम्भ है। इसके पीछे सभागृह है जो इन्द्रसभा के नाम से प्रसिद्ध है। दोनों तलों में प्रचुर चित्रकारी है। नीचे का भाग कुछ अपूर्ण सा है, जिससे यह सिद्ध होता है कि इन गुफाओं का निर्माण ऊपर से नीचे की ओर किया जाता था। ऊपर की शाला स्तम्भों से अलंकृत है तथा शाला के दोनों तरफ भगवान् महावीर की विशाल प्रतिमाएँ हैं और पार्श्व कक्ष में इन्द्र तथा हाथी की मूर्तियाँ स्थित हैं । इन्द्रसभा की बाहरी दीवार पर पार्श्वनाथ की तपस्या व कमठ द्वारा उन पर किए गए उपसर्ग का सुन्दर चित्रण है। पार्श्वनाथ कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानावस्थित हैं, ऊपर सप्तफणी नाग की छाया है व एक नागिन छत्र धारण किए है, दो अन्य नागिन भक्त, आश्चर्य व दुःख की मुद्रा में दिखायी देती हैं। एक ओर भैसें पर सवार असुर रौद्र मुद्रा में शस्त्रों सहित आक्रमण कर रहा है व दूसरी ओर सिंह पर सवार कमठ की रुद्र मूर्ति आघात करने के लिए उद्यत है। नीचे की ओर एक स्त्री व पुरुष भक्तिपूर्वक हाथ जोड़े खड़े हैं। दक्षिण दीवार पर लताओं से लिपटी बाहुबलि की प्रतिमा उत्कीर्ण है। अनुमानतः इन्द्रसभा की रचना तीर्थङ्कर के जन्म कल्याणोत्सव की स्मृति में हुई है जबकि इन्द्र अपना ऐरावत हाथी लेकर भगवान् का अभिषेक करने जाता है। इन्द्रसभा के समीप ही जगन्नाथ सभा नामक चैत्यालय है जिसका विन्यास इन्द्रसभा के सदृश्य है यद्यपि प्रमाण में उससे छोटा है। द्वार का तोरण कलापूर्ण है । चैत्यालय में तीर्थङ्कर महावीर की पद्मासन मूर्ति है। दीवारों तथा स्तम्भों पर सुन्दर मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। इन गुफाओं का निर्माणकाल ८वीं शती ई० के लगभग माना जाता है। इसके पश्चात् जैन परम्परा में ही नहीं, अपितु भारतीय परम्परा
गुफा निर्माण कला का विकास समाप्त हो जाता है और स्वतन्त्र मन्दिर निर्माण कला उसका स्थान ग्रहण करती है । ९
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नवीं शताब्दी का एक शिला मन्दिर दक्षिण त्रावणकोर में त्रिवेन्द्रम स्थित कुजीयुर
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