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________________ जैनों की नास्तिकता धर्मनिरपेक्ष समाज का आदर्श : ८९ है। दार्शनिकों और वैज्ञानिकों में यही प्रमुख अंतर है। जैन दर्शन के सिद्धांत तत्त्वत: वैज्ञानिक हैं। उन पर आधारित आचार नियमों की समीचीनता एवं ग्राह्यता सार्वलौकिक है। नये ज्ञान तथा अनुभव के संदर्भ में कुछ अल्प परिवर्तन या विस्तार करने पर श्रावकाचार धर्मनिरपेक्ष आचार के रूप में निखरता है।२५ वह विश्व के किसी धर्म के लिए आपत्तिजनक नहीं है। आस्तिक हों या नास्तिक सभी इसे बिना किसी अंतर्विरोध के स्वीकार कर सकते हैं। अतएव यथार्थ में यह धर्मनिरपेक्ष है। सन्दर्भ : १. सायणमाधव ने अपने सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक मत का कठोर शब्दों में खंडन किया है। अद्वैत वेदांत का समर्थन करने के लिए १४वीं सदी में रचे गये इस ग्रंथ में जैन दर्शन सहित १६ विविध भारतीय दर्शनों की चर्चा है। जैन दर्शन के बारे में उनकी टिप्पणी आधुनिक शास्त्रार्थ नियम में अशोभनीय समझी जा सकती है। संदर्भ - सर्वदर्शनसंग्रह; भाष्यकार उमाशंकर शर्मा; वाराणसी १९६५ ई०। निष्पक्ष दृष्टि से लिखी गयी पुस्तक - चार्वाक दर्शन की शास्त्रीय मीमांसा; ले० सर्वानंद पाठक, वाराणसी १९६५ ई०। मार्क्सवाद की पुष्टि एवं सभी आस्तिक दर्शनों का खंडन करने के लिए लिखी गयी पुस्तक - D. Chattopadhyaya, Lokayata : A Study in Indian Materialism, People's Publishing House, New Delhi 1973 A.D. २. आज कल भारत में दलित समाज के लोग बड़ी संख्या में बौद्धधर्म की स्वीकार करने लगे हैं इनमें किसी हिन्दू दर्शन से बौद्ध दर्शन की श्रेष्ठता समझ कर धर्मांतरण करने वाले बहुत कम हैं। वे राजनीति से प्रेरित हो कर बौद्ध धर्म स्वीकार करते हैं। ३. चित्रों में तथा प्रतिमाओं में देवी देवताओं को खड्ग, त्रिशूल जैसे घातक आयुधों सहित दर्शाया जाता है। इस तरह पाप करने वालों को दंडित करने की क्षमता दिखायी जाती है। ४. ध्रियते लोकोऽनेनेति धर्म: अर्थात् जो व्यवस्था समाज में स्थैर्य लाती है वह धर्म है। यही धर्म शब्द की सही व्याख्या है। तथापि परंपरा से प्रस्थापित ईश्वरोपासना से समाज में सुख-शांति आती है ऐसा समझ कर सामान्य प्रयोग में धर्म शब्द का अर्थ 'कर्मकांड विधि' बना है। "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' (तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र १) यह जैन दर्शन का मार्गदर्शक सूत्र है। संदर्भ - वाचक उमास्वातिविरचित तत्त्वार्थसूत्र; विवेचक, सुखलाल संघवी; पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी १९७६ ई०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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