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________________ जैनों की नास्तिकता धर्मनिरपेक्ष समाज का आदर्श : ८५ महत्त्व की व्यापकता आज कल बढ़ती जा रही है। गृहस्थाश्रम के दायित्व को निभाने के लिए कई वस्तुओं का संग्रह अनिवार्य है। जरूरत से अधिक संग्रह करना ही इस व्रत का अतिचार है। भोग और उपभोग में अंतर स्पष्ट करने से इस व्रत के बारे में कुतर्क करने वालों को सही दिशा दिखायी जा सकती है। जो वस्तु एक बार प्रयोग करने पर दुबारा प्रयुक्त नहीं हो सकती उसे भोग वस्तु कहते हैं। जो वस्तु बार-बार प्रयुक्त हो सकती है उसे उपभोग की वस्तु कहते हैं।१४ अन्न आदि भोग वस्तुओं के . अतिप्रयोग की कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि उसके पर्याप्त सेवन से तृप्ति मिलती है। भविष्य में प्रयोग के लिए भी संग्रह सीमित होता है क्योंकि अति संग्रह बेकार सड़कर नष्ट होता है। अत: कोई विवेकी मनुष्य खुद के लिए भोग वस्तुओं का अतिमात्र संग्रह नहीं करता।१५ उपभोग वस्तुओं के संग्रह की तो कोई सीमा ही नहीं। नये कपड़े, जूते, आभूषण जरूरत के बिना भी खरीदे जाते हैं। आकर्षक नमूनों की विविध वस्तुएं बनाकर व्यापारी अपना व्यापार बढ़ाते हैं। इस कारण 'उपभोक्तावाद' (कन्स्यूमरिज्म्) नाम की नयी आर्थिक विकृति पैदा हुई है। जब औद्योगीकरण प्रारंभ हुआ तब कोई इस विकृति की विकरालता का आकलन नहीं कर सका। उपभोग्य वस्तुओं की विपुलता ही आर्थिक और सामाजिक विकास का ध्येय बनाया गया। तब किसी अर्थशास्त्री ने नहीं सोचा होगा कि अरण्यनाश, भूस्खलन, बाढ़, पर्यावरण का प्रदूषण और वर्गकलह जैसी अनर्थपरंपरा उपभोगवाद को बढ़ावा देने से पैदा होगी। आज भी व्यापार जगत में विज्ञापनों द्वारा उपभोगवाद को बढ़ावा दे कर 'आर्थिक विकास' करने का (वास्तव में कर लेने का) उद्देश्य सर्वोपरि माना जाता है। उद्योग बढ़ने से रोजगार बढ़ कर गरीब श्रमजीवियों का फायदा होगा ऐसी दलील दी जाती है। फिर भी गरीबों के कल्याण के लिए अब तक किसी उद्योगपति ने कारखाने नहीं खोले। उपभोगवाद के दुष्परिणामों से कोई अछूता नहीं रह सकता। .. परिग्रहपरिमाण व्रत श्रावकाचार का एक महत्त्वपूर्ण आदर्श है और इसे औद्योगीकरण से कई शतक पहले ही निरूपित किया गया। इस से जैन चिंतकों की दूरदर्शिता स्पष्ट होती है।१६ कुतर्क करने वाले कह सकते हैं कि निर्धन लोगों के पास आवश्यक वस्तुएं भी नहीं होती तो अतिसंग्रह का सवाल ही नहीं। तो क्या वे लोग आदर्श व्रती हैं? इस का उत्तर द्वादशानुप्रेक्षा में दिया जा चुका है। यदि वे दूसरों के पास भोगोपभोग की वस्तुएं विपुलता में देख कर असूया करते हैं और खुद भी, चाहे अन्याय से ही सही, प्राप्त करना चाहते हैं तो उन्हें व्रती नहीं कहा जा सकता। वे मन में इस व्रत का अतिचार करते हैं और इस लिए दोषी हैं। यदि वे अपनी स्थिति से संतुष्ट हों और अधिक परिग्रह की इच्छा नहीं रखते हों तो उन्हें आदर्श व्रती कहने में कोई संकोच नहीं। स्वेच्छा से अकिंचन्य (गरीबी) स्वीकारना (voluntary poverty) आदर्श गुण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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