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________________ जैनों की नास्तिकता धर्मनिरपेक्ष समाज का आदर्श : ८३ आचार्य अमृतचंद्र द्वारा रचित पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में हिंसा के विषय में विस्तार से विवेचन किया गया है। सूक्ष्मों भगवद्धमो धर्मार्थं हिंसने न दोषोऽस्ति। इति धर्ममुग्धहृदयैर्न जातु भूत्वा शरीरिणो हिंस्याः।। धों हि देवताभ्यः प्रभवति ताभ्यः प्रदेयमिह सर्वम्। इति दुर्विवेककालितां धिषणां न प्राप्य देहिनो हिंस्याः।। ___ (पुरुषार्थसिद्धयुपाय, श्लो० ७९, ८०) भावार्थ - "(हमारा) श्रेष्ठ धर्म बहुत ही सूक्ष्म है, अर्थात् सामान्यविवेक से परे है। धर्म के लिए की गयी हिंसा में दोष नहीं है' - ऐसा सोचते हुए प्राणिहिंसा नहीं करनी चाहिये। (एक और दलील देते हए) “धर्म का विधान देवताओं ने किया है। अत: इस लोक में जो भी है उसे देवताओं को समर्पित करना चाहिये' - इस प्रकार की विवेकशून्य बुद्धि से हिंसा नहीं करनी चाहिये। . वस्तुत: अहिंसा धर्म ही बहुत सूक्ष्म है। हिंसा के लिए प्रयुक्त साधन (जैसे चाकू, तलवार, बंदूक, बम आदि) बनाना एवं उनके क्रय-विक्रय से धन कमाना भी हिंसा है। यदि कई लोगों ने मिल कर एक ही जीव की हत्या की तो उन सभी को समान रूप से हिंसा का पाप मिलेगा। बाघ, सिंह अदि 'हिंसक' पशु कई अन्य जीवों को मारते हैं। ऐसे मांसाहारी जीवों को मारने से अनेक जीवों की रक्षा होती है। अत: कोई ऐसा तर्क कर सकते हैं कि 'हिंसक' पशु मारना हिंसा नहीं है। इसका उत्तर यह है रक्षा भवति बहूनामेकस्यैवास्य जीवहरणेन। इति मत्वा कर्तव्यं न हिंसनं हिंस्रसत्त्वानाम्।। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, ८३।।१० जैन दर्शन में अहिंसा को जितना महत्त्व दिया है उतना शायद ही किसी अन्य दर्शन में दिया गया हो। २. असत्य से विरति - स्वयं असत्य बोलना, दूसरे से कहलाना या असत्य बोलने की अनुमति देना पाप है।१ आपत्काल में भी सत्य व्रत का पालन करना चाहिये। केवल विनोद के लिए भी असत्य बोलना पाप है। स्वामीसमंतभद्र ने रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा है कि धर्माचरण के विपरीत अर्थात् गलत उपदेश देना, किसी की गुप्त बात को प्रकट करना, किसी की बात को विपर्यस्त करके प्रकट करना तथा * अपने पास सौंपी गयी वस्त, धन आदि के बारे में लौटाते समय विस्मृति का स्वांग करना - ये सभी सत्य व्रत के अतिचार हैं। "सत्यम् ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्। प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः॥” इस प्रसिद्ध सुभाषित में भी सत्य व्रत का पालन कैसे हो यह मार्मिक ढंग से कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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