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________________ ४६ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३ उपाय क्यों बताये होते? क्या सचित्त और हरित शब्द में केवल प्रत्येक वनस्पति ही आते हैं? यहां भी सचित्त शब्द विशेषण है और किंचि शब्द से कन्द मूलादि के अतिरिक्त अन्य कोई भी ऐसी कोटि के पदार्थों (जैसे विशिष्ट ककड़ी आदि) का अर्थ लिया गया है। गाथा के अनुसार, सभी कंद-मूल आदि अपनी प्राकृतिक अवस्था में सचित्त हैं। साहित्याचार्य ने तो इस गाथा के अनुवाद में गेहूं आदि धान्यों के सूखे बीजों को योनिभूत मानकर सचित्त बताया है। तो क्या अन्न भी नहीं खाना चाहिये? अचित्तीकरण की विधियां साधारण और प्रत्येक-दोनों कोटि की वनस्पतियों पर लागू होती हैं। यह मान्यता सही नहीं लगती कि साधारण कोटि के वनस्पति अचित्तीकृत नहीं होते या वे अनंतकायिक अवस्था में ही बने रहते हैं। वे अनंतकाय हो जाते हैं, फलतः भक्ष्य हैं। . सागारधर्मामृत के श्लोक ७.८ में सचित्तविरत के विवरण में भी, अप्रासुक, हरित, अंकुर एवं बीज के त्याग एवं सचित्त भोजन के त्याग का ही संकेत है। इसका भी विधि परक अर्थ ही लेना चाहिये। इसी प्रकार, मूलाचार एक श्रमणाचार विषयक ग्रंथ है। उसकी गाथा ८२७ में अनग्निपक्व विशेषण ही है, विशेष्य नहीं। यह तथ्य उत्तरवर्ती गाथा ८२८ से स्पष्ट हो जाता है जहां मुनि के लिये बीजरहित, गूदा निकला हुआ, अग्निपक्व या प्रासुक आहार कल्पनीय बताया गया है। ये सब अचित्तीकरण के रूप ही हैं। यहां तो कंद-मूल विशेष का कोई उल्लेख ही नहीं है। यदि वे अग्निपक्व के रूप में भी निषिद्ध होते तो इस गाथा में उनका उल्लेख अवश्य होता। भला जैनाचार्य निषेधवाक्य की उपेक्षा कैसे करते? मूलाचार के आचार्य के प्रणेता जिसने एक गाथा सकारात्मक तो लिखी। इसी ग्रंथ की गाथा ४८४ में भी बीज, फल और कंद-मूल को स्वल्प-मल कहा है। इससे भी इनकी आंशिक अभक्ष्यता (अपक्व अवस्था में?) ही व्यक्त होती है। इस प्रकार जहां, सामान्य अनंतकाय शब्द आया है, वहां उन्हें अपक्व और अशस्त्र-परिणत के रूप में ही त्याज्य मानना चाहिये। श्री जिनेन्द्र वर्णी (जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश - ३, पृष्ठ २०४) और अन्य विद्वानों ने भी गाथा ८२७ के अनग्निपक्व शब्द का विशेषण के रूप में ही अर्थ किया है। फलत: मूलाचार की गाथा ८२७-२८ को कंद-मूलों की भक्ष्यता के संबंध में प्रामाणिक मानना और उसके अर्थ को सही रूप में लेना चाहिये। गणिनी ज्ञानमती माताजी ने मूलाचार की हिन्दी टीका में पहले यही अर्थ लगाया था, पर अब गाथा २१३-१७ का उदाहरण देकर अपने अर्थ को परिवर्धित किया है। इन गाथाओं में प्रत्येक और संमूर्छिन वनस्पतियों के उदाहरण हैं। इन्हें 'हरितकाय' कहते हुए उनके परिहार की सूचना दी है। उपरोक्त चर्चा के आधार पर उनका भी परिवर्धित मत पुनर्विचारणीय है।३८ मूलाचार को दिगम्बर जैनों का आचारांग कहा जाता है। उसमें श्वेतांबर आगामों के अनेक मत पाये जाते हैं। गाथा ८२७-२८ भी दशवैकालिक, गाथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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