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________________ ३४ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२/अक्टूबर-दिसम्बर २००३ में बताया गया है। दिगम्बर ग्रंथों में प्रतिष्ठित या अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीरी वस्पतियों के कुछ उदाहरणों को छोड़कर, अनेक नाम नहीं मिलते। इसके विपर्यास में प्रज्ञापना एवं जीवाभिगम आदि में प्रत्येक शरीरी बादर वनस्पतियों के बारह प्रकार और उनके प्रायः ३५० नाम गिनाये गये हैं। इनमें से अनेक-हरित, औषधि, धान्य, शाक आदि के फल, पर्व, बीज आदि हम आहार एवं औषधि में काम में लेते हैं। ये सभी वनस्पति प्रकृति में कच्चे या कालपक्व रूप में पाये जाते हैं। इन्हें 'आम' शब्द से निरूपित किया जाता है। फलत: 'आम' शब्द का अर्थ केवल सचित्त सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति मात्र नहीं लेना चाहिये। आम या अन्य समानार्थी शब्दों से सभी प्रकार के हरे या कच्चे वनस्पतियों (चाहे वे साधारण कोटि के हों या प्रत्येक के) को लेना चाहिये। दिगम्बर ग्रंथों की तुलना में, प्रज्ञापना आदि ग्रंथों में साधारण वनस्पतियों के प्राय: १०० नाम दिये गये हैं जिनमें अनेक कंद और मूल आते हैं। इन्हें बादर निगोद कहा जाता है। साधारणत: जैन लोग इन्हें भूमिगत तनेवाले पौधे कहते हैं। इनके अंतर्गत, वनस्पतिशास्त्रियों के अनुसार, निम्न कोटियां आती हैं : १. प्रकंद (रि-जोम) : हल्दी, अदरक आदि २. कंद (ट्यूब) : आलू आदि ३. शल्क कंद (बल्ब्स) : प्याज, लहसुन आदि ४. घन कंद (कौर्म) : क्रोकस आदि इसके अनुसार, जैनों द्वारा स्वीकृत कंद-मूल या गडंत वनस्पतियां इन चार कोटियों में समाहित हो जाती हैं। इन वनस्पतियों का तना जमीन के अंदर मूर्तरूप.लेता है और ऊपरी अंश को पोषण देता है। वनस्पतिशास्त्री हल्दी और अदरक की कोटि को, लहसुन और प्याज तथा आलू की कोटि से भिन्न मानते हैं। शायद ये धूप में सुखाये या परिवर्तित किये जा सकते हैं, फलत: इनकी भक्ष्यता उतनी जड़मूल नहीं है जितनी आलू आदि की है क्योंकि वे धूप द्वारा सुखाये नहीं जा सकते, वे केवल अग्निपक्वन से परिवर्तित किये जा सकते हैं। यहां अग्नि से पारंपरिक अग्नि के अतिरिक्त विद्युत-भट्ठी, माइक्रोवेव या अन्य आधुनिक तेजस्कायिक उत्पादी उपकरण भी लेने चाहिये। सामान्यत: प्रयोग में आने वाले इस कोटि के वनस्पति निम्न हैं : १. अदरक, २. हल्दी, ३. मूली, ४. गाजर, ५. प्याज, ६. लहसुन, ७. आलू, ८. धुइयां, ९. शकरकंद, १०. जमीकंद, ११. सूरणकंद, १२. मूंगफली, १३. शलजम आदि। इन कंदमूलों का पत्तेवाला भाग जमीन के ऊपर रहता है। यह माना जाता है कि पत्तीवाला भाग , भूतलीय अंश है और भक्ष्य है और भूमिगत अंश भक्ष्य नहीं है। प्रकृति में ये 'आम' या 'सचित्त' अवस्था में पाये जाते हैं और इनका अग्निपक्वन या शस्त्र परिणमन किया जा सकता है। Jain Education International nal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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