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________________ २८ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १०-१२ / अक्टूबर-दिसम्बर २००३ होने से इन्हें शास्त्र का मूल वक्ता कहा गया है। इन दो नयों के निरूपण और इनके समन्वय में ही अनेकान्तवाद का पर्यवसान होता है। जिसे सिद्धसेन ने कुशलता से सन्मति तर्क में किया है। जगत् किसी भी प्रकार के एक्य से रहित केवल अलग-अलग कड़ियों की भांति भेद रूप भी नहीं है और तनिक भी भेद के स्पर्श से रहित अखण्ड अभेद रूप भी नहीं है। परन्तु उसमें भेद ओर अभेद दोनों का अनुभव होता है। उसे जब भी कोई व्यवहार करना होता है तब दृष्टि कुछ भेद की तरफ झुकती है और पहले ग्रहण किए हुए सत्रूप अखण्ड तत्त्व के प्रयोजन के अनुसार जीवअजीव आदि भेदों का अवलम्बन लेती है । यहाँ सत्ता रूप तत्त्व को अखण्ड रूप से ग्रहण करने वाली प्रथम दृष्टि संग्रह नय है। यह शुद्ध द्रव्यास्तिक नय है और सत्ता को जीव- अजीव आदि रूप से खण्डित करके उसके द्वारा व्यवहार चलाने का प्रयत्न करने वाली परिमित अभेदस्पर्शी दूसरी दृष्टि व्यवहार नय है। व्यवहार परिमित होने से अपरिमित संग्रह का ही अंश है। इसलिए यद्यपि वह शुद्ध द्रव्यास्तिक का एक परिमित खण्ड है फिर भी संग्रह और व्यवहार इन दोनों को द्रव्यास्तिक नय के अनुक्रम से शुद्ध अपरिमित और शुद्ध परिमित अंश कह सकते हैं। संग्रह और व्यवहार के बाद ऋजुसूत्र, समभिरूढ़ तथा एवंभूत इन चार नयों को पर्यायास्तिक का भेद कहा है। किसी भी सामान्य तत्त्व का अवान्तर जाति या गुण आदि की विशेषताओं को लेकर विभाग किया जा सकता है। परन्तु जब तक उस विभाग में काल कृत भेद का तत्त्व नहीं आता तब तक वे सब विभाग व्यवहार नय की कोटि में रखे जाते हैं। कालकृत भेद का अवलम्बन लेकर वस्तु विभाग का आरम्भ होते ही ऋजुसूत्र नय माना जाता है और वही नय पर्यायास्तिक का प्रारम्भ समझा जाता है। इसी से यहाँ पर ऋजुसूत्र को पर्यायास्तिक नय का मूल आधार कहा गया है । बाद के शब्द आदि जो तीन नय हैं वे यद्यपि ऋजुसूत्र का अवलम्बन लेकर प्रवृत्त होने से उसी के भेद हैं तथा ऋजुसूत्र आदि चारों नय पर्यायास्तिक के प्रकार माने जा सकते हैं। दृष्टि तत्त्व व वर्तमान काल तक ही मर्यादित मानती है और भूत एवं भविष्य काल को कार्य का असाधक मानकर उन्हें स्वीकार नहीं करती, ऐसी क्षणिक दृष्टि ऋजुसूत्र नय कहलाती है । इस दृष्टि द्वारा मान्य वर्तमानकालीन तत्त्व में भी जो दृष्टि लिंग और पुरुष आदि के भेद से भेद की कल्पना करती है वह शब्द 'नय' है। शब्द नय द्वारा मान्य सामान्य लिंग वचन आदि वाले अनेक शब्दों के एक अर्थ में व्युत्पत्ति के भेद से - पर्याय के भेद से जो दृष्टि अर्थ भेद की कल्पना करती है वह समभिरूढ़ नय है। समभिरूढ़ नय द्वारा एक पर्याय शब्द के एक अर्थ में जो भी दृष्टि क्रिया काल तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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