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________________ सिद्धसेन दिवाकर का जैन दर्शन को अवदान डा० किरण श्रीवास्तव* आचार्य सिद्धसेन दिवाकर जैन साहित्य के संस्कृत भाषा में तर्कपूर्ण काव्यमय स्तुति की रचना करने वाले प्रथम दार्शनिक हैं। उन्होंने दर्शन के क्षेत्र में नई दृष्टियाँ दी एवं जैन न्याय का बीजारोपण किया और जैन सिद्धान्तों की तर्क पुरस्सर सूक्ष्म चर्चा कर तात्त्विक मान्यताओं पर चिन्तन-मनन का द्वार उद्घाटित किया। आचार्य सिद्धसेन ने आगमों में बिखरे अनेकान्त सुमनों को माला का रूप देते हुए अनेक मौलिक तथ्यों को भी जनमानस के सामने रखा। ज्ञान की प्रमाणता और अप्रमाणता में मोक्षमार्गोपयोगिता के स्थान पर ज्ञेय रूप का समर्थन; प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम के रूप में प्रमाण त्रयी की कल्पना प्रत्यक्ष और अनुमान में स्वार्थ-परार्थ की अनुभूति और प्रमाण लक्षण में स्वपरावभासक के साथ बाधविवर्जित रूप को सुनिश्चित करना सिद्धसेन की अपनी मौलिक सूझ ही थी। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के जैन दर्शन को दिए गए अवदान का उनके द्वारा संस्थापित कतिपय दार्शनिक मान्यताओं के आलोक में मूल्यांकन किया जा सकता है जो निम्न हैं : (१) दर्शन और ज्ञान के युगपत् भाव का प्रतिपादन (पक्ष-विपक्ष) (२) नयों का पुनर्वर्गीकरण (३) ज्ञान और क्रिया के एकान्तिक आग्रह का निराकरण (४) अनेकान्त व्यवस्थापन (१) दर्शन और ज्ञान के युगपत् भाव का प्रतिपादन (पक्ष-विपक्ष) : आचार्य सिद्धसेन ने दर्शन और ज्ञान के अभेद की एक नयी परम्परा स्थापित की। जैनों के सर्वज्ञ के दर्शन और ज्ञान को भिन्न मानने की इस आगमिक परम्परा पर उन्होंने प्रहार किया और अपने तर्क बल से यह सिद्ध किया कि सर्वज्ञ के दर्शन और ज्ञान में कोई भेद नहीं है। सर्वज्ञत्व के स्तर पर पहुँचकर दोनों एक रूप हो जाते हैं। उन्होंने अवधि और मनः पर्यय तथा ज्ञान और दर्शन को भी एक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है। * पूर्व शोध छात्रा, पार्शवनाथ विद्यापीठ, वाराणसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525051
Book TitleSramana 2003 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages156
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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