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दिगम्बर जैन जातियाँ : उद्भव एवं विकास : २१
१२. गोलालारे२२
गोगोलागढ़ ग्वालियर/गोपाचल का ही दूसरा नाम है। इसके समीप रहने वाले गोलालारे कहलाते हैं। यह उपजाति यद्यपि संख्या में अल्प रही है, परन्तु फिर भी धार्मिक दृष्टि से बड़ी कट्टर रही है। इस जाति के श्रावकों द्वारा निर्मित अनेक मूर्तियां मिलती हैं। अनेक विद्वान् तथा धनाढ्य इस जाति में थे और आज भी उनकी अच्छी संख्या है। इसके निकास का स्थान गोलागढ़ है। इनके गोत्रों की संख्या और उनके क्या-क्या नाम हैं, इसके बारे में पूरी जानकारी नहीं मिलती। १३. गोलसिंघारे (गोलशृंगार)२४
गोलागढ़ में सामूहिक रूप से निवास करने वाले श्रावकगण गोलसिंघारे कहे जाते हैं। शृंगार का अर्थ यहां भूषण है जिसका अर्थ हुआ गोलागढ़ के भूषण। इस जाति का कोई विशेष इतिहास नहीं मिलता। १७वीं शताब्दी के कितने ही ग्रंथ प्रशस्तियों में इस जाति के श्रावकों का उल्लेख मिलता है। इस जाति के उदय, अभ्युदय और ह्रास आदि का विशेष इतिवृत्त ज्ञात नहीं हो सका और न ही इसमें हुए विद्वान् कवियों का ही परिचय ज्ञात हो सका। १४. पद्मावती पोरवाल
इस जाति को परवार जाति का ही एक अंग माना जाता है जिसका समर्थन . बख्तराम साह के बुद्धिविलास से होता है। इस उपजाति का निकास पोमाबाई (पद्मावती) नाम की नगरी से हुआ है। यह नगरी पूर्वकाल में अत्यन्त समृद्ध थी। इसकी समृद्धि का उल्लेख खजुराहो के संवत् १०५२ के शिलालेख में पाया जाता है। यह नाग राजाओं की राजधानी थी। इसकी खुदाई में विभिन्न नाग राजाओं के सिक्के आदि प्राप्त हुए हैं। इस जाति में अनेक विद्वान्, त्यागी, ब्रह्मचारी और साधु-पुरुष हुए हैं। महाकवि रइधू इसी जाति में उत्पन्न हुए थे। कविवर छत्रपति एवं ब्रह्मगुलाल भी इसी जाति के अंग थे। इनके द्वारा अनेक मंदिरों और मूर्तियों का भी निर्माण हुआ है। १५. चित्तौड़ा२६
दिगम्बर जैन चित्तौड़ा समाज राजस्थान के मेवाड़ प्रदेश में अधिक संख्या में निवास करता है। अकेले उदयपुर में इस समाज के १०० से भी अधिक घर हैं। यद्यपि चित्तौड़ा जाति का उद्गम स्वयं चित्तौड़ नगर है लेकिन वर्तमान में वहां इस समाज का एक भी घर नहीं है। चित्तौड़ा समाज भी दस्सा एवं बीसा में बंटी हुई है। समाज में गोत्रों का अस्तित्व है। विवाह के अवसर पर केवल स्वयं का गोत्र ही टाला जाता है। सारे देश में चित्तौड़ा समाज की जनसंख्या ५० हजार के लगभग होगी।
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