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________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : 87 आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार इस वैज्ञानिक युग में भगवतीसूत्र में वर्णित बातें सत्य हो रही हैं। पांचवें काल खण्ड की अवधि इक्कीस हजार वर्ष है। कहीं काल की उदीरणा न हो जाए ? इक्कीस हजार वर्ष के बाद आने वाली स्थिति इक्कसवीं शताब्दी में ही न आ जाए ? क्योंकि वैज्ञानिक घोषणा है - इक्कीसवीं शताब्दी का मध्य दुनिया के लिए भयंकर कष्टदायी होगा। संभव है काल की उदीरणा हो जाए। काल, कर्म उदीरणा में निमित्त बनता है तो हो सकता है, शायद कर्म भी कभी-कभी काल की उदीरणा में निमित्त बन जाये। __ अहिंसा और संयम को जीवन शैली में अपनाकर पर्यावरण संकट से बचा जा सकता है। यद्यपि अहिंसा और सयंम एक वस्तु के दो रूप हैं। संयमित जीवन शैली के साथ अहिंसा और असंयमित जीवन शैली के साथ हिंसा जुड़ी हुई रहती है। एक संसारी व्यक्ति पूर्ण अहिंसक नहीं हो सकता। इसलिए भगवान् महावीर ने हिंसा को दो रूप में प्रस्तुत किया है। अर्थ हिंसा एवं अनर्थ हिंसा। एक गृहस्थ पूर्ण रूप से अहिंसक नहीं हो सकता। उसे जीवनयापन करने के लिए हिंसा का सहारा लेना पड़ता है। उसे अर्थ हिंसा (आवश्यक) कहा है। इसे न छोड़ सके तो अनर्थ हिंसा को छोड़े। वर्तमान जीवन शैली का अधिकांश भाग अनर्थ हिंसा से जुड़ा हुआ है। उसे छोड़ने से पर्यावरण के विभिन्न घटकों की सुरक्षा हो सकती है। अहिंसा केवल पारलौकिक ही नहीं, वह जीवन के हर चरण के साथ जुड़ी हुई है। भगवान् महावीर संभवत: प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने संसार के समस्त जीवों को छः वर्गों में बांटा - पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। पृथ्वीकाय में पत्थर, मिट्टी समस्त खनिज पदार्थ धातु आदि; अपकाय में पानी; तेजस्काय में अग्नि; वायुकाय में हवा, वनस्पति काय में हरियाली-पेड़ पौधे, वृक्ष आदि। त्रसकाय में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जीवों का समावेश है। पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति के जीव एकेन्द्रिय कहलाते हैं। वे सूक्ष्म होते हैं, उन्हें हम आंखों द्वारा नहीं देख सकते हैं। एकेन्द्रिय जीव भी सुखदुःख, प्रिय-अप्रिय, हर्ष-शोक आदि वृत्तियों का संवेदन करते हैं। इनकी चेतना अव्यक्त होती है। इनके अस्तित्व को हम अस्वीकार नहीं कर सकते। भगवान् महावीर ने कहा है - इनके अस्तित्व को अस्वीकार करने का अर्थ है अपने अस्तित्व को अस्वीकारना। जंगम, स्थावर, अदृश्य, सूक्ष्म और स्थूल जीवों के अस्तित्व को स्वीकार करने वाला ही पर्यावरण की सुरक्षा कर सकता है। अहिंसा और संयम को हमें व्यावहारिक रूप में स्वीकार करना होगा। अहिंसा का आधार आत्मा है। मनुष्य की आत्मा और एकेन्द्रिय आदि जीवों की आत्मा समान है। मैं जैसे सुख-दुःख की अनुभूति करता हूँ वैसे ही समस्त प्राणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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