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________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : 79 की संज्ञा दी जाती है। किन्तु इसमें गुणात्मक विकास के साथ-साथ सम्पूर्ण मानव जाति के उत्थान की भावना समाहित होती है। प्राणी मात्र के प्रति रक्षा की भावना निहित होती है। मनि की जीवनचर्या पर्यावरण को सुरक्षित तथा शुद्धिपरक संयमाचरण को प्रकट करती है। विशुद्ध वातावरण में रहने से ही साधु अच्छी तरह से ज्ञान, ध्यान और तप में संलग्न रह सकते हैं। साधु के अट्ठाईस मूलगुणों में पांच महाव्रत हैं। उनमें अहिंसा और अपरिग्रह महाव्रत प्रकृति से अति दोहन की प्रवृत्ति पर अंकुश रखने का प्रतीक है। दिगम्बर जैन साधु कमण्डलु और पिच्छी रखते हैं जो पर्यावरण संरक्षण के अनुकूल है। कमण्डलु लकड़ी का पात्र होता है। पिच्छी मयूर पंखों से निर्मित होती है उसे साधुजन स्वयं बनाते हैं और सभी लोगों को अपना काम स्वयं करने की प्रेरणा देते हैं। यह पिच्छी इतनी कोमल होती है कि उससे किसी जीव को कष्ट नहीं होता है। साधु के संयम की रक्षा उसी पिच्छी के माध्यम से होती है। वे किसी भी वस्तु को उठाते हैं रखते हैं तो पहले पिच्छी से परिमार्जन कर लेते हैं। पिच्छी और कमण्डलु दोनों ही नष्ट होने पर भूमि में विलीन हो जाते हैं। साधु बिहार में किसी प्रकार के वाहन प्रयोग नहीं करते जिसके फलस्वरूप वे वायु प्रदूषण व ध्वनि प्रदूषण का नियन्त्रण करते हैं और उनके यत्नाचारपूर्वक पद यात्रा से सूक्ष्म जीवों की रक्षा हो जाती है। अतः श्रमण की सम्पूर्ण चर्या ही आन्तरिक एवं बाह्य पर्यावरण के संरक्षण में सहायक है। जैनधर्म के अनेकान्त और स्याद्वाद सिद्धांत से भी पर्यावरण संरक्षण होता है क्योंकि अनेकान्त द्वारा आज के मानव की वैचारिक समस्या का समाधान हो सकता है। वह संसार के बहुआयामी स्वरूप से परिचित हो जाता है। श्रमणाचार इस दिशा में एक रचनात्मक भूमिका निभा सकता है। नदी शारीरिक मल को दूर करती है। परन्तु सप्तभंगी जिनवाणी मानसिक प्रदूषण को दूर करती है। इस प्रकार अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभंगी आन्तरिक पर्यावरण संरक्षण में सहायक हैं। आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से सूक्ष्मतम जीव-जीवाणु (वैक्टीरिया) एवं विषाणु (वायरस) हैं। ये जल, थल, नभ में प्रत्येक स्थान पर रहते हैं। माइकोप्लाज्मा भी अत्यन्त सूक्ष्म जीव है। यदि सूक्ष्म जीवों की तुलना जैन धर्म में वर्णित स्थावर जीव एवं निगोद से की जाए तो बहत समानता मिलेगी। पर्यावरण संरक्षण इन जीवों के संरक्षण से ही संभव है। स्थावर जीवों के प्रति अहिंसा मात्र से पर्यावरण की संरक्षा हो सकती है। पंचविध स्थावर जीव हर क्षण हमारे साथ रहते हैं। उनके प्रति संतुलन (लिमिटेशन) का भाव रखना ही पर्यावरण विज्ञान है। जैन धर्मानुसार एकेन्द्रिय जीव अपने स्थान पर स्थिर रहने के कारण स्थावर जीव कहलाते हैं। धर्म एवं अधर्म द्रव्य से संबंधित जितने आकाश में जीव और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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