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________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : ७७ का त्यागी और अष्ट मूलगुणों का पालन करने वाला श्रावक कहलाता है और उनका आचार ही श्रावकाचार है। श्रावकाचार के अंर्तगत प्रमुख रूप से पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत और ग्यारह प्रतिमाओं का विवेचन है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह इन पाँच व्रतों का पालन करने के कारण इन्हें अणुव्रती कहा जाता है। पांच अणुव्रतों में अहिंसाणुव्रत और परिमाण व्रत में ही सारे अणुव्रत गर्भित हो जाते हैं। चार अणुव्रत अहिंसा रूपी खेत में बाड़ी के समान हैं। अहिंसा के बिना आचार शून्य है। मानवता का कल्याण अहिंसा में ही समाहित है। इसलिए जैन धर्म में अहिंसा का ही सूक्ष्म एवं मौलिक विवेचन मिलता है। अतः पर्यावरण को विशुद्ध रखने के लिए अहिंसा की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। श्रावक संकल्पी हिंसा का त्यागी होता है। वह एकेन्द्रिय जीवों जैसे - पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और वनस्पति का भी संकल्पपूर्वक विराधना नहीं करता है। जैन धर्म ने व्यक्ति को प्रकृतिस्थ बनाने के लिए ऐसी जीवन पद्धति दी है जो उसकी सुन्दर आध्यात्मिक भाव भूमि तैयार कर देती है। यह भाव भूमि है अहिंसा और अपरिग्रह की - जिस पर चल कर कोई भी व्यक्ति दूसरे को न कष्ट दे सकता है और न अनैतिक मार्ग पर चल सकता है। पर्यावरण को विशुद्ध बनाये रखने में ये दो अंग विशेष साधक माने जाते हैं। जैनधर्म में शाकाहार को पर्यावरण संरक्षण का आधार माना गया है। यह अहिंसा की महान प्रतिष्ठा का सरल, सात्विक और स्वास्थ्यवर्धक आहार है जो न केवल बाह्य पर्यावरण को संरक्षित व संवर्धित करता है वरन् जीवन में पवित्रता, सद्गुण, सदाचार और संयम की ओर ले जाता है जो “शा'' - शान्ति, “का” - कान्ति, "हा" - हार्द्र स्नेह और "र" - रसों या रक्षक का परिचायक है। अर्थात शाकाहार हमें शान्ति, कान्ति, स्नेह और रसों से परिपूर्ण करता है। मनुष्य प्रकृतिप्रदत्त, एक शाकाहारी प्राणी है। इसकी शारीरिक संरचना शाकाहार के अनुकूल है। शाकाहार समरसता और सहअस्तित्व है जो चारित्रिक गुणों पर आधारित एक जीवन प्रक्रिया है। दया और करुणा प्रेम का उपहार है। जिसमें परस्परोपग्रहोजीवानाम् का मूल मंत्र निहित है और जो हर प्राणी को प्रकृति और पर्यावरण से जोड़ता है। जीयो और जीने दो के उद्घोष में पर्यावरण के प्रति आदरभाव निहित है। शाकाहार में संतुलित आहार के सभी तत्व प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, खनिज लवण और विटामिन्स होते हैं। ये सभी तत्व वनस्पति, अनाज, दाल, दूध और फलों से प्राप्त हो जाते हैं। इससे प्राणी अपनी पूरी आय सरलता से जी सकता है। इस प्रकार अहिंसा व्रत पर्यावरण संरक्षण का सोपान है। पर्यावरण को विशुद्ध रखने में अपरिग्रह का भी प्रमुख स्थान है। यह सर्वोदय का अन्यतम अंग है। इसके अनुसार व्यक्ति और समाज परस्पर आश्रित हैं। एक के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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