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जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण
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प्रदूषण भी दो प्रकार का होता है - बाह्य प्रदूषण आन्तरिक प्रदूषण १. बाह्य प्रदूषण - इसमें जल, वायु, भूमि, ध्वनि प्रदूषण, रेडियोधर्मी
प्रदूषण आदि हैं। २. आन्तरिक या मानसिक प्रदूषण - व्यसन, पाप, कषाय और दुर्भाव।
औद्योगीकरण तथा अन्य मानवीय गतिविधि के फलस्वरूप अब “जल प्रदूषण' की समस्या ने गम्भीर रूप ले लिया है। वर्तमान में रेडियोएक्टिव पदार्थ, धूलकण, सीसा, आर्सेनिक आदि स्वच्छ वायु को प्रदूषित करते हैं। सबसे अधिक वाय प्रदूषण औद्योगिक कारणों से ही होता है। भूमि प्रदूषण का मुख्य स्रोत जनसंख्या की वृद्धि है। भू-प्रदूषण की समस्या यथार्थ में ठोस अपशिष्ट के निक्षेपण की समस्या का ही दूसरा नाम है। मृदाक्षरण, मृदा का विभिन्न स्रोतों से रासायनिक प्रदूषण, भूउत्खनन, ज्वालामुखी-उद्गार इत्यादि समस्त मानवकृत तथा प्राकृतिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप भूमि प्रदूषण होता है। विभिन्न कृत्रिम साधन हमारे आस-पास के वातावरण में शोरवृद्धि के प्रमुख कारण हैं। ये तीन
प्रकार से हैं - १. उद्योग धन्धों की मशीनें २. स्थल तथा वायु परिवहन के साधन ३. मनोरंजन के साधन तथा सामाजिक क्रियाकलाप
जैविक नशीले पदार्थों की अपेक्षा रेडियोधर्मी पदार्थ अधिक हानिकारक होते हैं। उर्जा उत्पादक संयंत्रों तथा रेडियो आइसोटोप, औद्योगिक तथा अनुसंधान कार्य रेडियोधर्मी प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं जिससे पर्यावरण की गुणवत्ता का विघटन होता है। भौतिक कारणों से ज्यादा हानिकारक हमारा आन्तरिक प्रदूषण है जो प्रकृति की मौलिकता पर प्रहार कर पर्यावरण को चौपट कर रहा है। व्यक्ति का विचार ही मूल है जो भोगवादी संस्कृति की चादर लपेटे अपने सुख के लिए दूसरों के अधिकारों को छीनने में कतई संकोच नहीं कर रहा है। विचारों का सम्प्रेषण और प्रत्यावर्तन एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है जो कर्ता और कर्म दोनों को प्रभावित करता है। प्रकृति की रसमयता और स्वाभाविकता विलुप्त होती जा रही है इसका कारण हमारे मनोविकार हैं। स्वादलोलपता और विदेशी धनार्जन की भावना से देश में कत्लखानों की वृद्धि हुई है। जो पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। मांसाहार जलभाव के लिए भी उत्तरदायी है। कत्लखानों से निकली निरीह पशुओं की चीत्कारें भी भूमण्डल को विक्षोभित करती हैं।
जैनधर्म में मानसिक पर्यावरण के प्रदूषित होने के अनेक कारण बताए गए हैं
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