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________________ ६० में सम्यक् दृष्टि से एकरूपता का आभास किया है। जैन धर्म की धार्मिक सहिष्णुता ने सही अर्थों में धर्म को एक नयी दृष्टि प्रदान की है जिसका मूल आधार विचारों में अनेकांत और व्यवहार में अहिंसा रही है। पर्यावरण प्रदूषित होने के कारण न केवल मानव जाति को अपितु भूमंडल के समग्र जीवन के अस्तित्व को खतरा उत्पन्न हो गया है। उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण जीवन के लिये आवश्यक स्रोतों का इतनी तीव्रता से इतनी अधिक मात्रा में दोहन हो रहा है कि भविष्य में जल की प्राप्ति दूभर हो जायेगी । बढ़ती हुई जनसंख्या और दूषित संस्कृति के कारण पर्यावरण रक्षा का प्रश्न मानव संस्कृति के आगे है। विज्ञान की विनाशक प्रकृति आज मानव सभ्यता के समक्ष प्रदूषण के रूप में सामने है। इनका स्थायी समाधान कहीं दिखाई नहीं देता, अगर समाधान है तो जैन धर्म के उन सिद्धान्तों के पालन में जिसमें प्राणी मात्र के लिये समभाव है। भगवान् महावीर के अनुसार यदि हमें भयमुक्त उत्तम सुख प्राप्त करना है, तो उसे धर्म द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। वह उत्तम सुख प्राप्ति का साधन धर्म क्या है? अगर इस प्रश्न पर विचार करें तो इसका मूल चिन्तन है आत्मा के निजस्वरूप को प्राप्त करना। गीता में भी कहा है “यतो धर्मः ततो जयः” इसका आशय यही है कि हम " work is worship" को आधार बनाकर सहिष्णु भाव से अपने कर्तव्यारूढ़ होकर आगे बढ़ें तो निश्चय ही धर्म की प्रभावना होगी और प्रकृति के जीव- अजीव सभी प्राणियों का संरक्षण करते हुये अपने वातावरण को सुखद बना सकेंगे और यह सुखद अनुभूति हमें जैन दर्शन के रत्नत्रय को अपनाने से ही प्राप्त हो सकती है। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र यह रत्नत्रय ही आत्मा का सच्चा धर्म है। धर्म के प्रचंड प्रताप से पाप आदि दुर्गुण धनवत् जलकर भस्मीभूत हो जायेंगे तब प्रकृति का वातावरण स्वच्छ, निर्मल, सुखद स्वरूप प्राप्त कर उभरेगा और प्रदूषित वातावरण का शमन होगा। यह सब संभव है भगवान् महावीर की अमृतमयी वाणी से प्रस्फुटित पथ पर चलकर । ऋषभदेव जैन धर्म के प्रथम एवं महावीर अंतिम तीर्थंकर हैं। सभी ने प्रकृति के साथ संतुलन रखने के लिये पृथ्वीकायिक आदि समस्त जीवों के साथ परस्पर उपकार करने के लिये संयम का उपदेश दिया है। उन्होंने जीवकाय एवं पुद्गलों के प्रति संयम रखने की महत्वपूर्ण प्रेरणा दी है। जैन धर्म प्रारंभ से ही प्रकृतिवादी रहा है और आज भी जैन मतावलम्बी सामान्य रूप से अपने आचरणों से, धर्म साधनाओं से एवं उपासना पद्धतियों द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रकृति के संरक्षण एवं संतुलन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। प्रकृति के इसी संरक्षण एवं संतुलन पर सम्पूर्ण पर्यावरण टिका हुआ है। यदि हमें मानव जीवन को बढ़ते हुये प्रदूषण एवं विनाशकारी विभीषिकाओं से बचाना है तो जैन धर्म के सिद्धान्तों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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