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________________ जैन धर्म और पर्यावरण संरक्षण : २९ है। जो अनेकान्त दृष्टि को धारण कर लेता है, वह विवादों से दूर रह सकता है, समस्याओं को सहजता के साथ सुलझा सकता है। जीवन में शांति और सच्चे आनन्द की अनुभूति कर सकता है। जो अपनी दृष्टि को बदल सकता है उसे सृष्टि को बदलने की जरूरत ही नहीं रहती । भगवान् महावीर ने कहा- जो मेरा है वही सच्चा है यह अभिमत ठीक नहीं। इस दृष्टिकोण का विकास करो । सापेक्ष और समन्वयपरक दृष्टिकोण का विकास ही शांतिपूर्ण सहअस्तित्व का आधार है। विश्व बंधुत्व और विश्वशांति के स्वप्न को साकार रूप देने का एक ही मार्ग है- भगवान् महावीर का अनेकान्त दर्शन । इक्कीसवीं सदी में अनेकान्त दर्शन का यह संदेश मानवजाति के उत्थान का जीवन मंत्र बन सकता है। विश्व में पर्यावरण की रक्षा हेतु हमें जैन धर्म की अहिंसा एवं अपरिग्रह की दृष्टि को अपनाना होगा। हमें वन्य जन्तुओं की हत्या को रोकना होगा और वृक्षों, वनों की अन्धाधुन्ध कटाई बंद करनी होगी। हमारे हृदय में वृक्षों वन्य प्राणियों के प्रति करुणा और वात्सल्यता का भाव पैदा होना चाहिए। अपने को सम्पन्न बनाने के लिए हम प्रकृति को निर्धन बना रहे हैं। यह परिग्रह हानिकारक है, इसे त्यागना पड़ेगा। जैन धर्म इच्छाओं और वस्तुओं के संग्रह को सीमित रखने की दृष्टि प्रदान करता है इसलिए प्रकृति की संपदा को सुरक्षित रखना होगा। हमारे औद्योगिक संस्थान प्रगति के सोपान होकर भी प्रदूषण के जनक हैं। कारखानों में जो निरंतर उत्पादन हो रहा है, उससे हमारे लिए सुख-सुविधाएं जुटाई जाती हैं। उनसे हमारी सम्पन्नता में वृद्धि होती है, लेकिन किसे मालूम नहीं कि हमारी परिग्रह वृत्ति ने अन्य प्राणियों के लिए कितनी समस्यायें पैदा की हैं। पानी में हानिकारक रासायनिक तत्व मिले रहते हैं। हमारी परिग्रहवृत्ति इसके लिए जिम्मेदार है। वनों वृक्षों को काटकर हम अपनी संपन्नता को बढ़ा सकते हैं, लेकिन अनेक पशु-पक्षियों को बेघर बना देते हैं, हिंसा नहीं तो और क्या है ? प्रकृति के बिना प्राणी कैसे रहेगा? सभी जीवों, प्राणियों के साथ एकात्मकता पैदा करना, उनके अस्तित्व को स्वीकार करना, अहिंसा को व्यावहारिक रूप देना है। जब संयम की बात जैन धर्म में कही जाती है तो प्रकृति के संतुलन की बात की जाती है। प्रकृति में असंतुलन आना, पदार्थों की स्थिति में गड़बड़ी या असंतुलन आना पर्यावरण की समस्या पैदा कर देता है। ) यह प्रकृति के साथ मनुष्य का तादात्म्य जुड़ा होता तो वह बिना सोचे- विचारे इस प्रकार उसका दोहन नहीं कर पाता। प्रकृति का अनियंत्रित दोहन सीधा प्रलय को आमंत्रण है। हम जानते हैं इस अवसर्पिणी काल का छठा आरा प्रलय की कहानी लिखेगा। पर अभी तो हजारों वर्षों का अंतराल है। जो घटना बहुत समय बाद घटित होने वाली है, वह आज घटित होती है तो अस्वाभाविक लगती है। प्राकृतिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525049
Book TitleSramana 2003 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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