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पर बल देकर पर्यावरणशद्धि में महान योगदान दिया है। शाकाहार से मनुष्य में सात्त्विक बुद्धि उत्पन्न होती है, जबकि मांसाहार से तामसी और राजसी वृत्ति।
उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित है कि जैन धर्म के अहिंसा आदि मौलिक सिद्धान्त पर्यावरण सृद्धि के परिपोषक हैं। इन सिद्धान्तों के आचरण से आन्तरिक और बाह्य दोनों दृष्टियों से पर्यावरण की शुद्धि होती है। जैन धर्म-दर्शन में इन सिद्धान्तों के प्राथमिक ज्ञान और सम्यक् ज्ञान के साथ चारित्र को भी समान रूप से महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि सिद्धान्तानुकूल आचरण के बिना सिद्धान्तों के ज्ञान मात्र से जीवन पूर्णतया सफल नहीं हो सकता। उचित ही कहा- “आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः।” श्रेष्ठ आचरण के कारण ही गुरु आचार्य कहलाता है।
जैन धर्म-दर्शन में निरूपित षट् लेश्या का सिद्धान्त भी पर्यावरणशुद्धि की दृष्टि से उपयोगी हैं। मनुष्य का चिन्तन जैसा होता है वैसा ही वह कार्य करता है। एक ही प्रकार के कार्य को भिन्न-भिन्न वृत्ति वाले लोग भिन्न-भिन्न पद्धति से सम्पन्न करते हैं। जंगल में लकड़ी काटने के लिए गये छ: लकड़हारों द्वारा क्षुधाशमन के लिए अपनायी गयी छ: विभिन्न पद्धतियों के दृष्टान्त से यही शिक्षा मिलती है कि आज का मानव जीवनमूल्यों के माध्यम से पद्मलेश्या तक भी पहुँच जाये तो भी विश्व की प्राकृतिक सम्पदा सुरक्षित हो जायेगी और लोगों की मौलिक आवश्यकताएं पूरी हो जायेंगी। जैन धर्म की यही शिक्षा है कि मानव को अपनी दैनिक जीवनचर्या में हिंसा, परिग्रह, असत्य-भाषण, अब्रह्मचर्य, मांसाहार आदि से बचने का यथा-सम्भव अधिकतम प्रयास करना चाहिए।
मानवकृत पर्यावरण प्रदूषण के कारण मानवजाति ही नहीं अपितु समस्त प्राणी वर्ग पीड़ित होते हैं। प्रासंगिक रूप से यह भी विचारणीय है कि पर्यावरणपरिशुद्धि के परिपोषक इन सिद्धान्तों के उपदेशक जैन धर्मानुयायी स्वयं इनका सम्यक् परिपालन करते हैं या नहीं? जहाँ तक पशु हिंसा और निरामिष भोजन का प्रश्न है जैन समाज आज भी उससे विरत है। यदि जैन धर्म के उक्त सिद्धान्तों का सम्यक् रूप से पालन किया जाय तो सम्पूर्ण विश्व पर्यावरण प्रदूषण से पूर्णतया मुक्त हो सकता है। पर्यावरणशुद्धि के लिए इनको अपनाना अपरिहार्य है। जैन साधनापद्धति नि:संदिग्ध रूप से एक ऐसी पद्धति है जो जीव और अजीव तत्वों में परस्पर पूर्ण समन्वय, सामन्जस्य और सन्तुलन को स्थापित करती है। सन्दर्भ
१. वैशेषिकसूत्र, प्रथमाध्याय, प्रथमाझिक सूत्र- २ २. काका साहेब कालेलकर, महावीर का जीवन संदेशः युग के संदर्भ
में, राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर १९८२.
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