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खरतरगच्छ-जिनभद्रसूरिशाखा का इतिहास
शिवप्रसाद
खरतरगच्छ में समय-समय पर विभिन्न शाखाओं के साथ-साथ कुछ उपशाखायें भी अस्तित्त्व में आयीं। इनमें क्षेमकीर्तिशाखा, कीर्तिरत्नसूरिशाखा, सागरचन्द्रसूरिशाखा और जिनभद्रसूरिशाखा प्रमुख हैं ये प्रशाखायें मूल खरतरगच्छीय परम्परा की ही अनुयायी रहीं । साम्प्रत निवन्ध में जिनभद्र. सूरिशाखा के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
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खरतरगच्छीय आचार्य जिनराजसूरि के पट्टधर जिनभद्रसूरि (वि०सं० १४७५-१५१४) अपने समय के एक प्रभावक जैनाचार्य थे । अनेक प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थों की बड़ी संख्या में प्रतिलिपि कराने, देश के विभिन्न नगरों में ग्रन्थभंडारों की स्थापना कराने तथा सैकड़ों की संख्या में जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराने में किसी भी गच्छ में ऐसा कोई भी मुनि या आचार्य नहीं हुआ जिसे इनके समकक्ष रखा जा सके। इनके पट्टधर जिनचन्द्रसूरि 'पंचम' हुए, जिनसे खरतरगच्छ की मूल परम्परा आगे चली तथा अन्य शिष्यों-प्रशिष्यों ने अपनी स्वतंत्र पहचान अथवा विशाल गच्छ परिवार में संगठन को दृढ़ बनाये रखने हेतु उस समय प्रायः प्रचलित परम्परा के अनुसार स्वयं को एक प्रशाखा के रूप में संगठित कर लिया । जिनभद्रसूरि के नाम पर यह प्रशाखा जिनभद्रसूरिशाखा के नाम से जानी गयी। जहां देश के अन्यान्य नगरों में जिनभद्रसूरि द्वारा स्थापित ज्ञानभंडार आज लुप्त हो चुके हैं वहीं जैसलमेर दुर्ग स्थित विश्वविख्यात ग्रन्थभंडार आज भी इनकी कीर्ति को अमर बनाये हुए 1
खरतरगच्छ की इस प्रशाखा में जयसागर उपाध्याय, मेरुसुन्दर उपाध्याय, कमलसंयमगणि, मुनि समयप्रभ, मुनि मेरुधर्म, कनकप्रभ, रंगकुशल, साधुकीर्ति, धर्मसिंह, नयरंग, विनयविमल, राजसिंह आदि कई विद्वान् मुनिजन हो चुके हैं। उक्त रचनाकारों ने अपनी कृतियों की प्रशस्तियों में अपनी गुरु-परम्परा के मुनिजनों की छोटी-छोटी गुर्वावली दी है। जिनभद्रसूरि को छोड़कर इस शाखा से सम्बद्ध मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित न तो कोई प्रतिमा मिलती है और न ही इससे सम्बद्ध कोई पट्टावली ही मिलती है । अतः इस निबन्ध में मात्र प्रशस्तिगत साक्ष्यों के आधार पर ही इस प्रशाखा के इतिहास का अध्ययन प्रस्तुत है
'प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
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