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________________ ३६ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३/जनवरी-मार्च २००३ मुनि श्री तेजसिंहजी सम्प्रदाय के मुनि श्री कालूरामजी ने भी श्रावकों को इस कार्य के लिए प्रेरित किया। इस सम्बन्ध में वि०सं० १९६८ पौष सुदि दशमी को सनवाड़ में सभी मेवाड़ के स्थानकवासी सन्तों का समागम हुआ जिसमें ४० गाँवों के श्रावक-श्राविकाओं ने भी भाग लिया। इस समागम में आचार्य पद हेतु मुनि श्री एकलिङ्गदासजी का नाम मनोनित किया गया और उसी वर्ष ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी दिन गुरुवार की तिथि आचार्यपद समारोह हेतु निर्धारित की गयी। इस प्रकार निर्धारित तिथि को राशमी में आचार्य पद चादर महोत्सव का आयोजन किया गया। महोत्सव में मुनि श्री कालूरामजी ने पूज्य पछेवड़ी (चादर) हाथ में लेकर सकल संघ से निवेदन किया कि सम्प्रदाय को उन्नत बनाने के लिए निम्न तीन बातें आवश्यक हैं१. गादीधर की निश्रा में ही सभी सन्त दीक्षित हों। २. सन्त और सतियाँ चातुर्मासिक आज्ञा पूज्यश्री से ही लें। ३. सम्प्रदाय से बहिष्कृत सन्त-सतियों का आदर न करें। सकल संघ ने उपर्युक्त तीनों नियम को स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात् सभी मुनिराजों ने पछेवड़ी पूज्य श्री एकलिङ्गदासजी के कन्धों पर ओढ़ाई। इस अवसर श्री मोतीलाल वाडीलाल शाह भी उपस्थित थे। उस चादर महोत्सव के अवसर पर श्रावक-संघ ने सम्प्रदाय के हित में जो निर्णय लिया वह इस प्रकार है परम्परागत आम्नाय के अनुसार प्रतिदिन प्रतिक्रमण में ४ लोगस्स का ध्यान, पक्खी के दिन १२ लोगस्स का ध्यान, बैठती चौमासी, फाल्गुनी चौमासी पर दो प्रतिक्रमण और २० लोगस्स का ध्यान, संवत्सरी पर दो प्रतिक्रमण और ४० लोगस्स का ध्यान करना चाहिए। २. दो श्रावण हों तो संवत्सरी भाद्रपद में तथा भाद्रपद दो हों तो संवत्सरी दूसरे भाद्रपद में करनी चाहिए। सन्त-सतीजी के चातुर्मास की विनती आचार्य श्री के पास करनी चाहिए। ४. आचार्य उपस्थित हों तो अन्य साधुओं का व्याख्यान नहीं हो। व्याख्यान आचार्य श्री का ही होना योग्य है। किसी आडम्बर के प्रभाव में आकर अपनी सम्प्रदाय की आम्नाय नहीं छोड़ना। ६. दीक्षा लेने के भाव हों तो अपनी ही सम्प्रदाय में दीक्षा लेना। मुनि श्री मोतीलालजी और मुनि श्री माँगीलालजी आपके प्रमुख शिष्य थे। ३९ वर्ष संयममय जीवन व्यतीत कर वि०सं० १९८७ श्रावण कृष्णा द्वितीया को प्रात: ९ बजे आपने ऊंटाला (बल्लभनगर) में सामाधिपूर्वक स्वर्ग के लिए प्रयाण किया। आपने अपने संयमजीवन में जितने चातुर्मास किये उनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525048
Book TitleSramana 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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