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________________ स्थानकवासी सम्प्रदाय के छोटे पृथ्वीचन्द्रजी महाराज की परम्परा का इतिहास : ३३ १८२७ से १८३२ के बीच की होनी चाहिए। आपने अपने संयमजीवन में कई मासखमण, पन्द्रह व तेईस दिन के तप किये। आपकी कई रचनायें उपलब्ध होती हैं जिनमें प्रथम रचना है - रोजी स्वामी २१ गुण । इसके अतिरिक्त 'भगवान महावीर रा तवन, 'सुमतिनाथ स्तवन', 'श्रीमती सती' आदि हैं। वि० सं० १८८९ फाल्गुन कृष्णा अष्टमी को उदयपुर में आपका स्वर्गवास हो गया। आपने अपने संयमजीवन में कुल ३७ चौमासे किये - नाथद्वारा - ९, सनवाड़ १, पोटलां -१, गंगापुर - १ लावार ( सरदारगढ़) - २, देवगढ़ - १, रायपुर - २, कोटा- १ भीलवाड़ा - २, चित्तौड़ - १ उदयपुर - १६ | आपके २२ शिष्य हुए जिनमें से मुनि श्री मानमलजी आपके पाट पर विराजित हुए । - आचार्य श्री मानमलजी आपका जन्म वि०सं० १८६३ कार्तिक शुक्ला पंचमी को देवगढ़ मदारिया में हुआ । आपके पिता का नाम श्री तिलोकचन्द्रजी गाँधी और माता का नाम श्रीमती धन्नादेवी था । ९ वर्ष की उम्र में वि०सं० १८७२ कार्तिक शुक्ला पंचमी के दिन आचार्य श्री नृसिंहदासजी शिष्यत्व में आपने दीक्षा ग्रहण की। आचार्य श्री नृसिंहदासजी के स्वर्गवास के पश्चात् मेवाड़ परम्परा के आचार्य पर आप समासीन हुये। आप एक कवि थे। आपकी कुछ रचनाएँ राजस्थानी शैली में उपलब्ध होती हैं जिनमें से एक है 'गुरुगुण स्तवन ।' वि०सं० १८८५ में आप द्वारा लिखित एक हस्तप्रति भी प्राप्त होती है जो 'मुनि श्री अम्बालालजी म० अभिनन्दन ग्रन्थ' में प्रकाशित है। आपने कुल ७० वर्ष संयमजीवन व्यतीत किया । ७९ वर्ष की अवस्था में १९४२ कार्तिक शुक्ला पंचमी को नाथद्वारा में आपका स्वर्गवास हो गया। इस प्रकार एक ही तिथि कार्तिक शुक्ला पंचमी को जन्म, दीक्षा और देवलोक गमन आपके जीवन की अनोखी घटना है। आपकी जन्म तिथि के विषय में मुनि हस्तीमलजी 'मेवाड़ी' की यह मान्यता कि आपका जन्म वि०सं० १८८३ में हुआ था जो प्रामाणिक प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि इस तिथि के अनुसार आपका स्वर्गवास वि०सं० १९६३ में मानना पड़ेगा, जो कि संगत नहीं है। इस सम्बन्ध में श्री सौभाग्यमुनिजी 'कुमुद' का कथन समीचीन प्रतीत होता है। उनका कहना है कि वि०सं० १९४७ में पूज्य श्री एकलिंगदासजी की दीक्षा हुई तो क्या उस समय श्री मानमलजी स्वामी वहाँ उपस्थित थे । श्री मानमलजी स्वामी का स्वर्गवास १९४२ में हो चुका था, अतः उनकी उपस्थिति का प्रश्न ही नहीं उठता। ४ यहाँ पट्ट परम्परा के विषय में यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि आचार्य श्री नृसिंहदासजी के पश्चात् उनके पाट पर मुनि श्री मानमलजी स्वामी आचार्य बनें - यह तथ्य श्री सौभाग्यमुनिजी 'कुमुद' के अनुसार है, जबकि आचार्य श्री हस्तीमलजी ने 'जैन आचार्य चरितावली' में आचार्य श्री नृसिंहदासजी के पश्चात् आचार्य श्री एकलिंगदासजी को उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525048
Book TitleSramana 2003 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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