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१३३ : श्रमण, वर्ष ५४, अंक १-३/जनवरी-मार्च २००३ आराधना प्रकरण में सर्वप्रथम भगवान् महावीर को प्रणाम करते हये प्रतिज्ञा की है कि मैं शास्त्र सम्मत आराधना के सम्पूर्ण स्वरूप को कहता हूँ। प्रस्तुत ग्रन्थ में पंचपरमेष्ठियों के स्वरूप का विवेचन करते हुये रचनाकार ने आत्मकल्याण एवं मंगल की कामना व्यक्त की है।
श्री सोमसूरि द्वारा विरचित आराधना प्रकरण का विषय चरणानुयोग से सम्बन्धित है। 'आराधना' शब्द की निष्पत्ति 'आंडू' उपसर्गपूर्वक ‘राध संसिद्यौ' धातु से भाव में ल्युट एवं स्त्रीलिंग में 'आ' प्रत्यय करने पर होती है, जो प्रसन्नता, संतोष, सेवा, पूजा, उपासना, अर्चना, सम्मान, भक्ति आदि का वाचक है। प्रभु, गुरु, इष्ट, परमात्मा या किसी भी पूज्य की सेवा और भक्ति की जाती है, भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही आराधनरा की धारा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित रही है। सनातन, जैन और बौद्ध तीनों ही धाराओं में अपने-अपने इष्ट के देवी-देवताओं की आराधना की गयी है।
श्री सोमसूरि द्वारा विरचित ग्रन्थ निश्चित तौर पर अपने आप में एक महान ग्रन्थ है जिसके अध्ययन व मनन से प्रत्येक व्यक्ति समाज और राष्ट्र का विकास सम्भव है।
- डॉ० धर्मेन्द्र कुमार सिंह गौतम, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
'श्रमण' पाठकों की दृष्टि में
श्रमण का जुलाई-दिसम्बर २००२ संयुक्तांक प्राप्त कर प्रसन्नता का अनुभव हुआ। यह अंक भी अपने प्रकाशन की परम्परा की श्लाघनीय गरिमा का संवाहक है। इसमें प्रकाशित आलेख शोधोपादेयता की महिमा से मण्डित हैं।
- विद्यावाचस्पति डॉ० श्रीरंजनसूरिदेव, पटना
श्रमण जुलाई-दिसम्बर २००२ का अंक मिला, धन्यवाद। काफी अच्छे और शोधपरक लेख हैं। कु० मधुलिका का आलेख 'जैनाचार्यों का छन्द शास्त्र को अवदान' पढ़ा। काफी परिश्रम के साथ शोधकार्य किया है, उन्हें मेरा धन्यवाद और आशीर्वाद।
- हजारीमल बांठिया, बांठिया हाउस, हाथरस (उ०प्र०)
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