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________________ ९२ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक लक्ख वाणिज्य८- लाख का व्यापार कर आजीविका चलाना। केश वाणिज्य४९.- भेड़-बकरियों का बाल काटकर और उन्हें बेचकर आजीविका चलाना। रस वाणिज्य५° -- दूध-दही, मधु, मक्खन आदि को बेचकर जीविका चलाना। विष वाणिज्य५१.- विषाक्त वस्तुओं का व्यवसाय। निल्लछणकम्म५२- शरीर के अंगों (नाक,कान आदि) छेद कर आजीविका कमाना। जंतपीलणकम्म५३- कोल्हू चलाने का व्यवसाय। दावग्गि दावणयकम्प५४- जंगल आदि जलाने के लिए आग लगाना या लगवाना। असइपोषण५५- कुत्ता-बिल्ली आदि जानवर तथा दास-दासी आदि पालकर बेचना या भाड़े से आय कमाना। सगडिकम्म५६- गाड़ी जोतकर आजीविका चलाने वाला कर्म। सरहद तलायस्सोसणाय५७– तालाब, द्रह आदि सुखाकर आय प्राप्त करने वाला कर्म। गरुड़िया५८--- गारुड़िक मन्त्र आदि जानने वाले गारुड़िया कहे जाते थे। ये लोग विषैले सोँ के काटने पर मन्त्रोषधि द्वारा उपचार कर जीविका चलाते थे। इन उपेक्षित वर्ग के व्यवसायों जिनमें से अधिकांश को प्राचीनकाल से ही हतोत्साहित करने का प्रयास हिन्दू धर्मशास्त्रकारों ने किया है, उसी परम्परा का पालन करते हुए जैन आचार्य हरिभद्रसूरि ने भी निषिद्ध बताया है जबकि इनमें से कुछ व्यवसाय तो दैनिक जीवनचर्या के सकुशल सम्पादन के लिये अपेक्षित थे। अत: निन्दनीय होने पर भी इनका अस्तित्व समाज में बना रहा। सन्दर्भ-सूची १. 'तिवग्गसाहणपरं' - द्र० समराइच्चकहा, ९.८६५-६६, अहमदाबाद, प्रथम - भाग १९३८, द्वितीय भाग, १९४२. तुलनीय अर्थशास्त्र १,७ “अर्थ एव प्रधान इति कौटिल्यः।” अर्थमूलौ हि धर्मकामौ इति।” एवं तुलनीय, पराशर, ८.३ अर्थ मूलौ धर्म कामौ। २. समराइच्चकहा ९, पृ० ८६६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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