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________________ ४ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक श्री जीतयशा श्रीजी आपके परिवार से ही हैं। विनय और सादगी की प्रतिमूर्ति स्व० नाहटाजी का सम्पर्क अपने समय के प्राय: सभी शीर्षस्थ विद्वानों से रहा है। इनमें स्व० पूरनचन्दजी नाहर, मुनि जिनविजय, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, मुनिकांतिसागर जी, मोहनलाल दलीचन्द देसाई. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, पं० दलसुख मालवणिया, डॉ० दशरथ शर्मा, श्री नरोत्तमदास स्वामी, डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदी, डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल, डॉ० रघुवीर सिंह, डॉ० विश्वम्भरनाथ पाण्डेय, प्रो० नथमल टांटिया, डॉ० रमनलाल ची० शाह, प्रो० सागरमल जैन, प्रो० मधुसूदन ढांकी, प्रो० यू०पी० शाह, महो० विनयसागर आदि प्रमुख हैं। महो० विनयसागरजी तो स्व० नाहटा जी द्वारा प्रारम्भ की गयी अध्ययन, सम्पादन एवं शोध की शानदार परम्परा को लम्बे समय से आगे बढ़ा रहे हैं। चूंकि अब नाहटाजी नहीं रहे अत: उन पर और भी अधिक जिम्मेदारी आ गयी है। ___ भंवरलालजी नाहटा द्वारा लिखित, सम्पादित एवं अनूदित रचनाओं की सूची हमें उनके सुपुत्र श्री पदमचन्दजी नाहटा और पौत्र श्री सुशील नाहटा के सौजन्य से प्राप्त हुई है, यहां हम उसे अविकल रूप से प्रकाशित कर रहे हैं। स्व० नाहटा जी द्वारा लिखित, सम्पादित एवं अनूदित कुछ महत्त्वपूर्ण रचनाओं का परिचय निम्नलिखित है। ये समय की शिला पर लिखे गये अमिट लेख हैं एवं उनके कालजयी व्यक्तित्व का प्रामाणिक दस्तावेज भी। १. द्रव्यपरीक्षा और धातूत्पत्ति- इसके मूल लेखक ठक्कुर फेरु धांधिया हैं (रत्नपरीक्षादि ग्रन्थ संग्रह का दूसरा व तीसरा भाग)। भँवरलालजी नाहटा ने लगभग ५५ वर्ष पूर्व अपनी शोधपिपासा की तृप्ति हेतु कलकत्ता के एक ज्ञान-भण्डार को खंगालते हुए छ: सौ वर्ष पुरानी पाण्डुलिपि खोज निकाली और उसकी प्रेसकापी तैयार कर पुरातत्त्वाचार्य मुनि जिनविजयजी के पास प्रकाशनार्थ भेजी जो सन् १९६१ में रत्नपरीक्षादिसप्तग्रन्थसंग्रह नाम से राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान, जोधपुर द्वारा प्रकाशित हुई। २. मातृकापदशृङ्गाररसकलितगाथाकोश- यशोभद्र के शिष्य वीरभद्रकृत यह कृति विशुद्ध रूप से एक शृङ्गारपरक रचना है। इस गाथाकोश की विशेषता यह है कि इसमें मातृका पदों अर्थात् स्वर और व्यञ्जनों में से क्रमश: एक-एक को गाथा का आद्यअक्षर बनाकर शृङ्गारपरक गाथाओं की रचना की गयी है। इसमें कुल ४० गाथाएँ हैं। गाथाएँ शृङ्गारिक हैं, फिर भी वे मर्यादाओं का अतिक्रमण नहीं करती। जहाँ मर्यादा से बाहर कोई संकेत करना होता है कवि उसे अपने मौन से ही इंगित कर देता है जैसे इस गाथाकोश के अन्त में कवि कहता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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