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८२ 44 श्रमण / जनवरी - जून २००२ संयुक्तांक
द्रव्यानुयोग की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के जो पृथक्-पृथक् लक्षण कहे गये हैं, उनमें भेद यह है कि चरणानुयोग गृहीत मिथ्यात्व के त्याग की बात करता है और द्रव्यानुयोग पर-पदार्थों के प्रति आत्मबुद्धि रूप जो अनादिकालीन अगृहीत मिथ्यात्व है उसके त्याग की चर्चा करता है।
करणानुयोग की अपेक्षा मिथ्यात्व, सम्यग् -मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति और अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया तथा लोभ- इन सात प्रकृतियों के उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षय से होने वाले श्रद्धागुण की स्वाभाविक परिणति को सम्यग्दर्शन कहा है।
स्वामी कार्तिकेय ने सम्यक्त्व के उपशम, क्षयोपशम और क्षायिक रूप तीन भेद बतलाये हैं। उनमें से क्षायिक सम्यक्त्व की विशेषता बतलाते हुये उन्होंने लिखा है कि- इसके होने पर यह छूटता नहीं है और जीव उसी भव अथवा तीसरे या चौथे भव में नियम से मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इस नियम का कभी उल्लङ्घन नहीं होता है। अतः क्षायिक सम्यग्दर्शन मोक्ष मार्ग में विशेष रूप से कार्यकारी है। मोक्षमार्ग और उसके फल में अन्तर है। मोक्षमार्ग साधन है और मोक्ष उसका फल है। इसीलिये आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय को मोक्षमार्ग का उपाय या साधन तथा निर्वाण को उसका फल बतलाते हुआ लिखा है
मग्गो मग्गफलं ति य दुविहं जिणसासणे समक्खादं । मग्गो मोक्खडवाओ तस्स फलं होइ णिव्वाणं । ।
इस प्रकार विविध अनुयोगों की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन के अनेक लक्षण शास्त्रों में बतलाये गये हैं, किन्तु यथार्थत: विचार किया जाये तो उन सभी का पर्यवसान एक है, केन्द्रबिन्दु एक है और वह है जीव को निर्वाण रूप फल की प्राप्ति कराने में सहायक होना । भिन्न-भिन्न अनुयोगों में प्रतिपादित सम्यग्दर्शन के भिन्न-भिन्न लक्षण होते हुये भी उन सभी का लक्ष्य जीव की मुक्ति के लिये आवश्यक भूमिका तैयार करना है । अतः निष्कर्ष के रूप में जिनेन्द्र वर्णी का यह कथन यथार्थ है कि-सम्यग्दर्शन के लक्षणों में स्वात्म-संवेदन प्रधान है, क्योंकि बिना इसके तत्त्वों की श्रद्धा आदि अकिञ्चित्कर है।
सम्यग्दर्शन के उक्त लक्षणों से इतना तो निश्चित है कि मोक्षाभिलाषी जीव को सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये, क्योंकि वही मोक्षमार्ग का मूलाधार है।
मिथ्यात्व से ग्रस्त चित्त वाला व्यक्ति मनुष्य होकर के भी पशु के समान आचरण
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