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मोक्षमार्ग में सम्यग्दर्शन की भूमिका
डॉ० कमलेशकुमार जैन
जैनधर्म के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मिलकर मोक्ष के मार्ग अथवा मोक्ष-प्राप्ति के उपाय हैं, स्वतन्त्र रूप से एक-एक अथवा इनमें से किन्हीं दो-दो का जोड़ा-विशेष नहीं। फिर भी इन तीनों में सम्यग्दर्शन प्रमुख है, क्योंकि इसके बिना शेष ज्ञान और चारित्र सम्यक नहीं होते हैं। सम्यग्दर्शन हो जाने पर उस सम्यग्दृष्टि जीव-विशेष के ज्ञान और चारित्र भी सम्यक् हो जाते हैं।
सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र भजनीय है। वे हो भी सकते हैं और नहीं भी, किन्तु सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के हो जाने पर सम्यग्दर्शन नियम से होता है, इसमें जरा भी सन्देह नहीं है।
सम्यक्चारित्र के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है और सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञानपूर्वक होता है। अतः सम्यग्दर्शन ही मोक्ष रूपी भव्य प्रासाद का मूलाधार है। हम चाहें तो इसे ही मोक्ष-प्राप्ति में हेतुभूत भूमि भी कह सकते हैं और 'भूमिरिव भूमिका' अर्थात् सम्यग्दर्शन रूपी भूमि ही मोक्षमार्ग की भूमिका कही जा सकती है। श्रमण-परम्परा के प्रमुख आचार्य कुन्दकुन्द ने दंसणपाहुड में लिखा है कि
दसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्स णत्थि णिव्वाणं।
सिज्झंति चरियभट्ठा सणभट्ठा ण सिझंति।। अर्थात् जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट ही हैं। दर्शन से भ्रष्ट जीवों को निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती है और जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वे प्रयासपूर्वक सिद्धि को प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु दर्शन से भ्रष्ट जीव कभी भी सिद्धि को प्राप्त नहीं कर सकते हैं।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने इस गाथा में सम्यग्दर्शन से रहित जीव की मुक्ति का उत्तरोत्तर जोर देते हुये तीन बार निषेध किया है। इससे यह तो निश्चित है कि सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव अनन्तानन्त काल में भी मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता है।
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जैनदर्शन प्राध्यापक, रीडर एवं अध्यक्ष, जैन-बौद्धदर्शन विभाग, संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान सङ्काय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
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