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श्रमण / जनवरी - जून २००२ संयुक्तांक
इतिहास, पुराण, अभिधान-कोश आदि में नव रसों का वर्णन किया गया है। श्रीमत्सिद्धान्तशास्त्र में भी नव रसों का सिद्धान्त प्राप्त है- 'आठों देवताओं के शृङ्गारादि का प्रदर्शन करे और उनके बीच में महादेव के शान्त रूप की रचना करे । '४
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इस प्रकार मोक्षरूप अध्यात्म का कारण तत्त्वज्ञान रूप हेतु से युक्त और निःश्रेयस् रूप फल से युक्त शान्तरस समझना चाहिए ।" इन्होंने शान्त रस को अन्य सब रसों का मूल (प्रकृति) बताया है । ६
१० हेमचन्द्र, ११
१२
भानुदत्त,
१३
मम्मट,
१४
१६
१८
रुद्रट, १७
रुद्रभट,
रामचन्द्र-गुणचन्द्र, ७ विश्वनाथ, ८ विद्यानाथ, ९ भोज, उद्भट, अग्निपुराणकार, १५ पण्डितराज जगन्नाथ, शान्त को नवम रस मानने के पक्षधर हैं। इनके विपरीत धनञ्जय, १९ धनिक, २० शारदातनय २१ एवं दण्डी २२ शान्त रस को स्वीकार नहीं करते हैं। द्रष्टव्य यह है कि धनञ्जय, धनिक एवं शारदातनय शान्त रस को अनभिनेय मानकर मुख्यतः नाटकादि में इसकी सत्ता का विरोध करते हैं।
डॉ० राघवन का कथन है कि अलङ्कारशास्त्र के आचार्य दण्डी के समय ७वीं शताब्दी तक आठ ही रसों की विद्यमानता को स्वीकार करते हैं। नवम शान्त रस को इनके पश्चात् मान्यता प्राप्त हुई । २३
इस सन्दर्भ में कालिदास द्वारा विक्रमोर्वशीय में भरत मुनि के नामोल्लेख सहित आठ रसों से युक्त नाटक का उल्लेख हमारा ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करता है कि इनके समय में भरतसम्मत आठ रसों की ही सत्ता स्वीकार्य थी । २४ सागरनन्दी २५ एवं शिङ्गभूपाल २६ ने भी मात्र आठ ही रसों का नाट्य हेतु विवेचन किया है। शान्त रस के सम्बन्ध में इनका मौन धारण नाट्य में शान्त रस की स्थिति को न मानने का पक्ष प्रस्तुत करता है । सागरनन्दी ने अपने सिद्धान्त पक्ष को प्रस्तुत करने से पूर्व प्राय: भरत के नाट्यशास्त्र की कारिकाओं को उद्धृत किया है।
यद्यपि प्रमाणों के आधार पर यह सम्भावना अधिक प्रबल है कि नाट्यशास्त्र में पहले आठ ही रसों का विवेचन रहा होगा तथा नवम शान्त रस का श्लोक प्रक्षिप्त हो सकता है; किन्तु फिर भी वर्तमान समय में नाट्य परम्परा में शान्त रस का अङ्गीरस के रूप में चित्रित करने वाली नाट्यकृतियों अध्यात्मकल्पद्रुम, २७ सङ्कल्पसूर्योदय, २८ शारिपुत्रप्रकरण, २९ प्रबोधचन्द्रोदय ३० इत्यादि की लम्बी सूची प्राप्य होना ही इस तथ्य को प्रमाणित कर देता है कि नाट्य में भी शान्त रस की स्थिति हो सकती है एवं यह पूर्णतया अभिनेय है। डॉ० राघवन् ने 'द नम्बर ऑफ़ रसाज़' में शान्त रस प्रधान नाटकों के नाम उद्धृत किये हैं । ३१ डॉ० कृष्णमाचारी ने भी शान्तरस के रूपकों को उल्लिखित किया है । ३२
इस प्रकार उपलब्ध प्रमाण नाट्य में शान्त रस की स्थिति सिद्ध करते हैं। शृङ्गार और वीर के सदृश नाटकों में शान्त रस भी अङ्गी रस के रूप में अभिनेय है।
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