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________________ प्रकीर्णक साहित्य : एक अवलोकन : ५१ ९८९ गाथाएँ हैं। इसमें समाधिमरण का साङ्गोपाङ्ग वर्णन किया गया है। इस प्रकीर्णक में समाधिमरण के सविचार और अविचार दो भेद में से सविचार भक्त परिज्ञा मरण का विस्तृत विवेचन है। प्रारम्भ में मङ्गल-अभिधेय के बाद पीठिका है। पुनः पाँच प्रकार के मरण का प्ररूपण करने के बाद वर्णविषय को चार द्वार (१) परिकर्मविधिद्वार, (२) गणसंक्रमणद्वार, (३) ममत्वउच्छेद द्वार और (४) समाधिलाभ द्वार में वर्गीकृत कर पुनः क्रमश: ग्यारह, दस, दस और आठ प्रतिद्वार में विभक्त किया गया है। प्रथम परिकर्मविधिद्वार के ग्यारह प्रतिद्वार हैं- (१) अर्ह, (२) लिंग, (३) शिक्षा, (४) विनय, (५) समाधि, (६) अनियतविहार, (७) परिणाम, (८) त्याग, (९) निःश्रेणि, (१०) भावना, एवं (११) संलेखना। द्वितीय गणसंक्रमण द्वार के दस प्रतिद्वार हैं- (१) दिशा, (२) क्षमणा, (३) अनुशिष्टि, (४) परगणचर्या, (५) सुस्थितगवेषण, (६) उपसम्पदा, (७) परीक्षा, (८) प्रतिलेखा, (९) आपृच्छना एवं (१०) प्रतीच्छा। तृतीय ममत्व उच्छेदन द्वार के दस प्रतिद्वार हैं- (१) आलोचना, (२) गुण-दोष, (३) शय्या, (४) संस्तारक, (५) निगमिक, (६) दर्शन, (७) हानि, (८) प्रत्याख्यान, (९) क्षमणा, एवं (१०) क्षमण। चतुर्थ समाधिलाभ द्वार के आठ प्रतिद्वार हैं- (१) अनुशिष्टि, (२) सारणा, (३) कवच, (४) समता, (५) ध्यान, (६) लेश्या, (७) आराधना फल और (८) विहान (परित्याग)। सविचार भक्त परिज्ञा मरण के वर्णन के पश्चात् अविचार भक्त परिज्ञा मरण का निरूपण है। इसके (१) निरुद्ध, (२) निरुद्धतर और (३) परमनिरुद्ध- तीन भेद कहे गये हैं। जंघाबल के क्षीण हो जाने पर अथवा रोगादि के कारण कृश शरीर वाले साधु का गुफादि में होने वाला मरण निरुद्ध अविचार भक्त परिज्ञामरण है। व्याल, अग्नि, व्याघ्र, शूल, मूर्छा, विशूचिका आदि के कारण अपनी आयु को कम जानकर मुनि का गुफादि में मरण निरुद्धतर अविचार भक्त परिज्ञा मरण है। भिक्षु की वाणी वातादि के कारण अवरुद्ध होने पर आयु को समाप्त जानकर मृत्यु का शीघ्र वरण करना परमनिरुद्ध अविचार भक्त परिज्ञा मरण है। भक्त परिज्ञा मरण के पश्चात् इंगिनीमरण का वर्णन किया गया है। इसका प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि भक्त परिज्ञा मरण में जो उपक्रम वर्णित हैं, वे ही उपक्रम यथायोग्य इंगिनीमरण में हैं। इसमें देव, मनुष्य आदि कृत उपसर्ग या किन्नर, किंपुरुष, देवकन्याएं एवं सभी पुद्गल के दुःखरूप हो जाने पर भी आराधक विचलित हुए बिना स्वयं ही आकुंचन, प्रसारण उच्चारादि की क्रियाएँ करता है। इसके पश्चात् संक्षेप में पादपोपगमनमरण का वर्णन कर अन्त में आराधना-फल का प्रतिपादन किया गया है। प्रकाशित संस्करण- यह प्रकीर्णक केवल महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से (पइण्णयसुत्ताइ भाग-२) मूलरूप में प्रकाशित है। १२- पर्यन्ताराधना- प्रस्तुत प्रकीर्णक अज्ञात मुनि की कृति है। इसमें कुल २६३ गाथाएँ हैं। इसका अपरनाम आराधनासार भी है। मङ्गलाचरण के पश्चात् विषयवस्तु का वर्णन २४ द्वारों में विभक्त कर लिया गया है। ये चौबीस द्वार हैं--- (१) सल्लेखना, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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