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३२ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक
१९४४ टीका; मूलाचार ७.३६-३८, १२९-१३३; उत्तरपुराण, ७३-७५,९२. ६. उत्तराध्ययन २३वां अध्ययन, कल्पसूत्र १४८-१५६; ऋषिभाषित अध्ययन
३१; सूत्रकृताङ्ग २.७.८१; १.६.२८; समवायाङ्ग ९.४, ८.८, १६.४, ३८.१, १००.४, स्थानाङ्गसूत्र ३५, भगवतीसूत्र १०.९, २.५; ज्ञाताधर्मकथा,
आवश्यकनियुक्ति २३६, १२४१-१२४३; राजप्रश्नीयसूत्र, १६७-१९०. ७. उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन २३
सूत्रकृताङ्ग, सूत्र २.७.७१-८१.
सूत्रकृताङ्ग, सूत्र २.७.८१ १०. भगवतीसूत्र, ९.३२.३७९, १०.९.७६. ११. भगवतीसूत्र, १.९.४३२-४३३. १२. देखें, अर्हत् पार्श्व और उनकी परम्परा, पृ० ३६. १३. भगवतीसूत्र, १.९.२३. १४. आवश्यकनियुक्ति, १२४१-१२४३. १५. बृहत्कल्पसूत्रभाष्य, उद्देश ६, भाष्यगाथा ६३५९-६३६४. १६. वही, भाष्यगाथा ६३६५-६३६९. १७. राजप्रश्नीयसूत्र, १६७-१९०. १८. ऋषिभाषित, अध्ययन ३१. १९. देखें, अर्हत् पार्श्व और उनकी परम्परा, पृ० २२. २०. मूलाचार, ७.३६-३८, १२९-१३३. २१. तिलोयपण्णत्ति (चतुर्थ महाधिकार), ४.४४८-५५०. २२. चतुर्धा चतुर्यमभेदात्। तत्त्वार्थवार्तिक, १.७ २३. संगहिय सयल-संजममेय -जममणुत्तरं दुरवगम्म।
जीवो समुव्वहंतो सामाइय-संजमो होई। छेत्तूण य परियायं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं। पंचजमे धम्मे सो छेदोवट्ठावओ जीवो।। षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १,
पृ० ३७२. २४. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्वपीठिका, पृ० ३९५-३९९; ४०९-४२५. २५. स्थानाङ्गसूत्र, २६६. २६. आचाराङ्गसूत्र, १५०-१५२.
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