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________________ ३० 06 श्रमण / जनवरी - जून २००२ संयुक्तांक (१) पार्श्व के चातुर्याम धर्म का पञ्चयाम धर्म में परिवर्तन । (२) पार्श्व के सचेलधर्म का अचेलधर्म में परिवर्तन । (३) प्रतिक्रमण की अनिवार्यता जो पार्श्व के समय में अपराध होने पर ही करणीय थी । (४) पार्श्व के सामायिक चारित्र में छेदोपस्थापनीय चारित्र का समावेस । श (५) औद्देशिक तथा राजपिण्ड भिक्षान्न के ग्रहण का निषेध । (६) मासकल्प (एक मास से अधिक एक स्थान पर न ठहरना) तथा पर्युषणा (आषाढ़ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक वर्षावास में एक स्थान पर चार मास तक रहने का विधान) की व्यवस्था । (७) अस्नान, अदन्तधावन, केशलोंच आदि का विधान । (८) पार्श्व के विवाह एवं कुल-सम्बन्धी मतभेद । (९) पार्श्वापत्य और पासत्थ शब्द क्या पार्श्वनाथ के लिए ही प्रयुक्त हैं ? (१०) प्रथम तीर्थङ्कर से लेकर चौबीसवें तीर्थङ्कर के काल की परिस्थितियों के अनुसार धार्मिक नियमों में संशोधन | कुछ व्याख्यागत मतभेद होते हुए भी इन विचारणीय बिन्दुओं में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पञ्चम, षष्ठ और दशम में दोनों परम्पराएँ एकमत हैं। सचेल और अचेल की व्याख्या को लेकर उभय-परम्पराओं में मतभेद है। पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री ने अपने ग्रन्थ 'जैनसाहित्य का इतिहास ( पूर्वपीठिका)' में इस विषय पर विस्तार से चिन्तन किया है । २४ वस्तुतः 'अचेल' का अर्थ 'नग्नत्व' है इसमें श्वेताम्बरों का भी मतभेद नहीं है, क्योंकि जिनकल्प की दृष्टि से नग्नत्व उन्हें स्वीकार्य है। जैनाचार के अनुसार जब कोई मुनि दीक्षा लेकर साधु (निर्ग्रन्थ) बनता है तो वह समस्त पाप-कार्यों का परित्याग करता है जिसे सामायिक चारित्र या सामायिक यम स्वीकार करना कहते हैं। इस एक यम रूप व्रत को जब भेद करके चार या पाँच यम रूप से स्वीकार किया जाता है तो उसे ' चातुर्याम' या 'पञ्चयाम' कहा जाता है। छेदोपस्थापना को जोड़कर महावीर ने इसे 'पञ्चयाम' रूप बनाया; ऐसी दिगम्बर मान्यता संभावित है । यह तर्कसंगत नहीं लगता है। अहिंसादि महाव्रतों में ब्रह्मचर्य को जोड़कर उसे पञ्चयामरूप बनाया, ऐसी श्वेताम्बर मान्यता है। वस्तुतः दोनों में सिद्धान्ततः कोई भेद नहीं है, क्योंकि दोनों परम्पराएँ अहिंसादि पांच महाव्रतों (यमों) और सामायिक आदि पाँचों आचारों (यमों) को आवश्यक मानते हैं। संभवत: छेदोपस्थापना चारित्र को जोड़ने के कारण ही प्रतिदिन प्रतिक्रमण का विधान मान्य हुआ होगा। स्थानाङ्गसूत्र में बतलाया है कि शिष्यों की अपेक्षा से मध्य के बाईस तीर्थङ्कर तथा विदेहस्थ तीर्थङ्कर 'चातुर्याम' धर्म का तथा प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर 'पञ्चयाम' धर्म का उपदेश करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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