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________________ २६ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक १. पार्थाभ्युदयः (जिनसेनकृत, ई० ७८३), २. पार्श्वनाथचरितम् (वादिराजसूरिकृत, ई० १०१९), ३. पासनाहचरिउ (देवदत्तकृत, ई० सन् १०वीं शताब्दी उत्तरार्द्ध, अनुपलब्ध), ४. पासनाहचरिउ (पद्मकीर्तिकृत, ई० १०७७), ५. पासनाहचरिउ (विबुधश्रीधरकृत, ई० ११३२), ६. पासनाहचरिउ (देवचन्द्रकृत. ई० १२वीं शताब्दी), ७. पार्श्वनाथपुराण (सकलकीर्तिकृत, ई० १४वीं शताब्दी पूर्वार्द्ध), ८. पासनाहचरिउ (रइधूकृत, ई० १४००), ९. पासनाहचरिउ (असपालकृत, ई० १४८२), १०. पार्श्वपुराण (वादिचन्द्रकृत, ई० १६८३) और ११. पार्श्वपुराण (चन्द्रकीर्तिकृत, ई० १५९७-१६२४)। __ (ख) श्वेताम्बर ग्रन्थः- इसके अन्तर्गत उत्तराध्ययनसूत्र, सूत्रकृताङ्ग, समवायाङ्ग, स्थानाङ्ग, भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथा, कल्पसूत्र, आवश्यकनियुक्ति, राजप्रश्नीय और ऋषिभाषित ये दस प्राचीन प्रमुख ग्रन्थ हैं। शीलाङ्क (लगभग नवीं शताब्दी) के चउपन्नमहापुरिसचरियं तथा हेमचन्द्राचार्य के त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में भी पार्श्वनाथ का जीवनवृत्त मिलता है। चरितकाव्यों में निम्न नव काव्यों का प्रमुख रूप से परिगणन किया जा सकता है- १. सिरिपासनाहचरियं (देवभद्रकृत, ई० ११११), २. पार्श्वनाथचरित्र (माणिकचन्द्रसूरिकृत, ई० १२१९), ३. पार्श्वनाथचरित्र (विनयचन्द्रकृत, ई० १२२९-१२८८), ४. पार्श्वनाथचरित्र (सर्वानन्दसूरिकृत, ई० १२३४), ५. पार्श्वनाथचरित्र (भावदेवसूरिकृत, ई० १३५५), ६. पासपुराण (तेजपालकृत, ई० १४५८), ७. पासनाहकाव्य (पद्मसुन्दरगणिकृत, ई० १६वीं शताब्दी), ८. पार्थनाथचरित्र (हेमविजयकृत, ई० १५७५), तथा ९. पार्श्वनाथचरित (उदयवीरगणिकृत, ई० १५९७)। उभय परम्पराओं के प्राचीन ग्रन्थों में मात्र सूचनाएं मिलती हैं। तिलोयपण्णत्ति तथा आवश्यकनियुक्ति में अपेक्षाकृत कुछ अधिक जानकारी प्राप्त होती है। ८वीं शताब्दी के बाद लिखे गये चरित काव्यग्रन्थों से ही हमें वस्तुत: विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। परवर्ती चरितकाव्यों के आधारग्रन्थ यद्यपि प्राचीन ग्रन्थ ही हैं, तथापि उनसे जो अतिरिक्त जानकारी प्राप्त होती है उसका मूलस्रोत क्या है, स्पष्ट नहीं है। अत: इस आलेख में केवल प्राचीन उल्लेखों को ही आधार मानकर विवेचना की गयी है। विवेचना से यह ज्ञात होता है कि देश, काल आदि की परिस्थितियों तथा मनुष्यों की मनोवृत्तियों को ध्यान में रखकर पार्श्वनाथ और महावीर के सिद्धान्तों में जो यत्किञ्चित् बाह्यभेद दृष्टिगोचर होता है वह नगण्य है, क्योंकि उनका मूल केन्द्रबिन्दु एक ही है। पार्श्वनाथ के आचार एवं सिद्धान्तों की तीर्थङ्कर महावीर के साथ तुलना करने के पूर्व यह आवश्यक है कि प्राचीन ग्रन्थों में उल्लिखित सन्दर्भो को समझ लिया जाये। इस सन्दर्भ में उभय परम्पराओं में जो सन्दर्भ प्राप्त होते हैं, वे निम्न प्रकार हैं १. उत्तराध्ययनसूत्र - इसमें पार्श्व-परम्परानुयायी केशी मुनि तथा महावीर-परम्परानुयायी गौतम गणधर के मध्य एक संवाद आया है जिसमें बाह्य रूप से दृश्यमान् मूलभूत दो अन्तरों का गौतम द्वारा स्पष्टीकरण किया गया है जिससे सन्तुष्ट होकर केशी मुनि अपने ५०० अनुयायियों के साथ महावीर द्वारा प्रतिपादित पञ्चयाम धर्म को स्वीकार कर लेते हैं। यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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