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________________ साहित्य-सत्कार : १८१ आचार्य- तुम ज्ञानी पुरुषों की सेवा करो और ज्ञान प्राप्ति में उपयोगी वस्तुओं का सहयोग करो। (२) कैसी क्रूरता, पाप का फल मनुष्य को निश्चित ही भोगना पड़ता है पाप किसी को नहीं छोड़ता। (पृष्ठ ६५) मनुष्य पाप करने में स्वतन्त्र होता है; किन्तु फल भोगने में नहीं। (पृ० ६८) इस प्रकार पूरे कहानी संग्रह में ऐसे शुभ अणु बिखरे पड़े हैं जो मानव जीवन को सद्मार्ग पर ले जाने में सक्षम हैं। पुस्तक रोचक तो है ही साथ ही सबके पढ़ने व मनन करने योग्य है। - राधवेन्द्र प्रताप सिंह जीवन और धर्म : लेखक- श्री केवलचन्द जैन, प्रकाशक- संघवी लालचन्द जीवराज एण्ड कम्पनी, बैंगलोर, आकार- डिमाई, पृष्ठ ११४; मूल्य- सदुपयोग। श्री केवलचन्द जैन की प्रस्तुत कृति गद्य एवं पद्य दोनों में होने के कारण प्रथम दृष्ट्या आकर्षित करने में सक्षम है। पुस्तक का कुछ अंश अंग्रेजी भाषा में लिखा गया है, जिससे यह अंग्रेजी भाषा के पाठकों के लिए भी उपयोगी बन पड़ी है। इस पुस्तक में धर्म के व्यवहार पक्ष पर विशेष जोर देते हुए क्षमा, दया, सम्मान, सत्कार, जगत् की अनित्यता, मोक्ष की महत्ता एवं कर्म (सद्कर्म) की प्रधानता पर प्रकाश डाला गया है जो आधुनिक जीवनशैली व्यतीत करने वाले को सद्मार्ग पर लाने के लिए आवश्यक है। लेखक साधारण धरातल से बहुत ऊपर उठकर 'परस्य अदुःख करणम्' के मूल सूत्र में जन-जन को बाँधने का सफल प्रयास करता हुआ हर पृष्ठ पर दिखायी पड़ता है। पुस्तक सभी के लिये पठनीय और मननीय है। पुस्तक का साज-सज्जा आकर्षक तथा मुद्रण सुस्पष्ट है। राघवेन्द्र प्रताप सिंह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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