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खरतरगच्छ - आद्यपक्षीयशाखा का इतिहास
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वि०सं० १६३९ एवं १६५६ के प्रतिमालेखों में प्रतिमाप्रतिष्ठापक जिनचन्द्रसूरि के गुरु जिनसिंहसूरि और प्रगुरु जिनदेवसूरि का भी नाम मिलता है। इसी प्रकार वि०सं० १६६९ के दोनों प्रतिमालेखों में जिनचन्द्रसूरि के पूर्ववर्ती तीन पट्टधर आचार्यों -- जिनसमुद्रसूरि, जिनदेवसूरि और जिनसिंहसूरि का भी नाम मिल जाता है।
इस प्रकार अभिलेखीय साक्ष्यों द्वारा इस शाखा के चार पट्टधर आचार्यों के नाम ज्ञात हो जाते हैं, जो इस प्रकार हैं :
जिनसमुद्रसूरि
जिनदेवसूरि
जिनसिंहसूरि
जिनचन्द्रसूरि (वि०सं० १६३९-१६७२ के मध्य विभिन्न
जिनप्रतिमाओं के प्रतिष्ठापक) जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर जिनहर्षसूरि हुए। इसी शाखा के कीर्तिवर्धन नामक एक रचनाकार द्वारा रचित जिनहर्षसूरिफागु नामक कृति प्राप्त होती है। इससे ज्ञात होता है कि वि०सं० १६९३ में जिनहर्षसूरि अपने गुरु के पट्टधर बने और वि०सं० १७२५ में इनका देहान्त हुआ। इनके द्वारा वि०सं० १७१३ में प्रतिष्ठापित पार्श्वनाथ की एक सलेख प्रतिमा प्राप्त हुई है, जो आज बीकानेर में गोगादरवाजा स्थित गौड़ीपार्श्वनाथ जिनालय में संरक्षित है। श्री अगरचन्द नाहटा ने इस लेख की वाचना दी है, जो इस प्रकार है
सं० १७२३ वर्षे भ० ताराचंद पार्श्वनाथ बिंबंकारितं प्रतिष्ठितं श्रीजिनहर्षसूरिभिः खरतरगच्छे आद्यपक्षीय।।
जिनहर्षसूरि के पट्टधर जिनलब्धिसूरि हुए जिनके द्वारा वि०सं० १७५० में रचित नवकारमहात्म्यचौपाई नामक कृति प्राप्त होती है। जिनहर्ष के एक अन्य शिष्य सुमतिहंस हुए जिनके द्वारा वि०सं० १६८६-१७३० के मध्य रची गयी विभिन्न कृतियाँ प्राप्त होती हैं, जो इस प्रकार हैं:
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