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गांधी चिन्तन में अहिंसा एवं उसकी प्रासंगिकता : १०९
होता तो मैं निश्चित रूप से यही करता। किसी पवित्र उद्देश्य से किसी को मारना या कष्ट पहुँचाना अहिंसक नहीं कहा जा सकता। किसी कृत्य को अहिंसक ठहराने के लिए दो शर्तें आवश्यक हैं
१.
२.
ऐसे कृत्य के पीछे पवित्र उद्देश्य ही नहीं, सम्बन्धित प्राणी का हित भी निहित होना चाहिए।
यह भली-भाँति सुनिश्चित कर लिया जाना चाहिए कि उस प्राणी को भौतिक क्षति पहुँचाना उसके हित की पूर्ति के लिए एकमात्र सम्भव उपाय है तथा स्वयं उसके हित की पूर्ति उसे भौतिक रूप से क्षति पहुँचाने के अलावा अन्य किसी रीति से की ही नहीं जा सकती । "
गांधीजी के लिए अहिंसा आस्था व निष्ठा का विषय है, कोई व्यावहारिक नीति नहीं। नीति व्यक्ति के स्वार्थपरक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए परिवर्तित की जा सकती है; किन्तु एक नैतिक आस्था के रूप में अहिंसा के प्रति समर्पित व्यक्ति की आस्था किसी कठिन से कठिन परिस्थिति में भी अडिग रहती हैं। गांधी के अनुसार अहिंसा मानव के गरिमामय अस्तित्व का शाश्वत नियम है; किन्तु उसकी असीम शक्ति तभी सक्रिय हो सकती है, जबकि उसे अपनाने वाले व्यक्ति का मन, मस्तिष्क और आचरण अहिंसा के प्रति आस्था से पूरी तरह ओत-प्रोत हो । ७
अहिंसा कायरता नहीं
गांधीजी की अहिंसा में कायरता के लिए कोई स्थान नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया कि अहिंसा एक ऐसा अस्त्र है जिसका प्रयोग केवल बहादुरों द्वारा किया जा सकता है। उनका दृढ़ विश्वास था कि भय और अहिंसा एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत प्रकृतियाँ हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि जब तक व्यक्ति पूरी तरह निर्भीक नहीं होगा, वह सर्वोच्च मानवीय सद्गुणों के रूप में अहिंसा की प्रभावकारी शक्ति को आत्मसात् ही नहीं कर सकेगा।
गांधीजी ने कहा कि “अहिंसा सर्वोच्च सद्गुण है, कायरता निकृष्टतम दुर्गुण । अहिंसा में कष्ट सहने की तत्परता और कायरता में कष्ट पहुँचाने की प्रवृत्ति होती है । अहिंसक कृत्य कभी नैतिक विवाद उत्पन्न नहीं कर सकता जबकि कायरता सदैव नैतिक पतन का कारण होगा। ""
गांधीजी का दृढ़ मत था कि अहिंसा का अभ्यास कायरों द्वारा किया जाना सम्भव ही नहीं हैं। किसी अन्याय का हिंसक साधनों से प्रतिकार करने वाले व्यक्ति की तुलना में अहिंसा के अनुयायी की अनिवार्य रूप से अधिक साहस और शौर्य की आवश्यकता होगी।" उनका मत था कि “जो व्यक्ति युद्ध के लिए तलवार लिए हुए है, निश्चित रूप
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