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________________ हय- हथि रतन ( मानिक) पंडराजा सत (सहसानि ) १४. सिनो वसीकरोति ( 1 ) तेरसमे च वसे सुपवत विजय चके कुमारीपवते अरहते (हि) पखिन सं(सि) तेहि कायनिसीदियाय यापूजावकेहि राजभितिन चिन वतानि वास (T) (सि) तानि पूजानुरत उवा (सगा-खा) रवेल सिरिना जीवदेह (सयि) का परिखाता ( 1 ) ७९ (मु) तमनि रतनानि आहरापयति इध १५. सकत- समण सुविहितानं च सव दिसानं अ (नि) नं ( ) तपसि इ (सि) न संघियनं अरहतनिसीदिया समीपे पाभारे बराकार समुथापिताहि अनेकयोजना हिताहि ... ....... सिलाहि १६. चतरे च वेडुरिय गभे थंमे पतिठापयति पानतरीय सत सहसेहि (1) मु (खि) य कल वोछिनं च चोय (ठि) अंग संतिक ( ) तुरियं उपादयति ( 1 ) खेम राजा स वढ राजा स भिखु राजा धम राजा पसं (तो) सुनं (तो) अनुभव (तो) कलानानि गुण विसेस कुसलो सव पाखंड पूजको सव दे (वाय) तन सकार कारको अपतिहत चक वाहनवलो चकधरो गुतचको पवतचको राजसिवसू कुल विनिश्रितो महाविजयो राजा खारवेलसिरि ( II ) १७. *****.......... इस सम्पूर्ण अभिलेख में कहीं भी पद के प्रारम्भ में 'ण' और अन्त में 'न' नहीं है। इसके विपरीत पद के प्रारम्भ में 'न' एवं अन्त में 'न' या 'ण' वर्ण के अनेक उदाहरण हैं, जिसे वे अर्धमागधी की विशेषता स्वीकार करते हैं यथा नमो अरहंतानं, नमो सवसिधानं, महाराजेन लखनेन कलिगाधिपतिना, खारवेलेन, नववसाति, नगर, नत, वधमान, नंदराज, यवन, सातकंनि, निवेसितं, नयति, रतनानि, निसीदिया, चिनवतानि, वास (सि) तानि, खारवेल सिरिना सुविहतांब दिसानं आदि। अब अंत में ण के कुछ प्रयोग देखिये- ऐरेण, संपुणं, गहणं (गोपुराणि, सिहराणि ) समण, गुण कन्हवेणा आदि । कुछ ऐसे भी शब्द हैं जहां मध्यवर्ती ण और अन्त में न है । जैसे ब्रह्माणान, लखणेन आदि। इन सब उदाहरणों से तो डॉ० सुदीपजी के अनुसार भी यह अर्धमागधी या अर्धमागधी प्रभावित ही सिद्ध होती है। पुन: इसमें दन्त्य स कार, क वर्ण का 'ग' आदेश तथा 'थ' के स्थान पर 'ध' का प्रयोग रूप जो विशेषताएँ हैं वह तो अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत में भी मिलती है। शौरसेनी के दो विशिष्ट लक्षण न का सर्वत्र ण और मध्यवर्ती असंयुक्त त् का दू तो इसमें कही पाये ही नहीं जाते हैं। इसी प्रकार इसमें वर्धमान का वधमान रूप ही मिलता है न कि शौरसेनी का वडमाण। इस प्रकार इसके शौरसेनी से प्रभावित होने का कोई भी ठोस प्रमाण नहीं है इसके विपरीत यह मागधी या अर्धमागधी से प्रभावित Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525045
Book TitleSramana 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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