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________________ संक्षेप में ब्राह्मीलिपि के अशोककालीन मागधी अभिलेखों में प्रारम्भ से ही जब 'न' और 'ण' की स्वतन्त्र आकृतियाँ निर्धारित हैं तो उनमें उत्कीर्ण 'न' को 'ण' नहीं पढ़ा जा सकता है, पुनः खरोष्ठी लिपि में भी मागधी और पैशाची प्राकृतों की प्रकृति के अनुसार 'न' ही पढ़ना होगा। भाई सुदीपजी ने प्राकृतविद्या, अप्रैल-जून १९९७ के ‘सबसे बड़ा अभिशाप : अंगूठा छाप' नामक शीर्षक से प्रकाशित सम्पादकीय में लिखा है - ___ "इसी प्रकार प्राकृत के 'नो ण: सर्वत्र' नियम का अपवाद इन शिलालेखों में प्रायश: 'न' पाठ की उपलब्धि बताया गया है। स्व० ओझाजी ने इसका समाधान देते हुए लिखा है कि प्राचीन भारतीय लिपियों, विशेषत: ब्राह्मी लिपि में 'न' एवं 'ण' वर्गों के लिए एक ही आकृति (लिपि-अक्षर) प्रयुक्त होती थी। जैसे कि अंग्रेजी में 'N' का प्रयोग 'न्' एवं 'ण' दोनों के लिए होता है। तब उसे 'न' पढ़ा ही क्यों जाये? जब प्राकृत में णकार के प्रयोग का ही विधान है और उसे उक्त नियमानुसार 'ण' पढ़ा जा सकता है; तो एक कृत्रिम विवाद की क्या सदाशयता हो सकती है? किन्तु पाश्चात्य विद्वानों ने 'न' पाठ रख दिया और उसे देखकर हमने कह दिया कि शिलालेखों की प्राकृत में 'न' का प्रयोग प्राचीन है और 'ण' का प्रयोग परवर्ती है। यह वस्तुत: एक अविचारित, शीघ्रतावश किया गया वचन-प्रयोग मात्र है।" उनकी ये स्थापनाएँ कितनी निराधार और भ्रान्त है यह उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट १. नो ण: सर्वत्र के नियम का अपवाद इन शिलालेखों में प्रायश: 'न' पाठ की उपलब्धि है - जो उपर्युक्त समस्त प्रमाणों से सिद्ध होता है। अत: शिलालेखीय प्राकृत मागधी/अर्धमागधी के निकट है और उसमें शौरसेनी के दोनों विशिष्ट लक्षण दन्त्य 'न' के स्थान पर मूर्धन्य 'ण' और मध्यवर्ती 'त' के स्थान पर 'द्' का अभाव है। ब्राह्मी लिपि में प्रारम्भिक काल से 'न' और 'ण' के लिए अलग-अलग आकृतियाँ रही हैं। यह बात पं० गौरीशंकरजी ओझा के भारतीयप्राचीनलिपिमाला पुस्तक के लिपिपत्रों से ही सिद्ध हो जाती है। अत: उनके नाम से यह प्रचार करना कि प्राचीन ब्राह्मी लिपि में 'न' एवं 'ण' वर्गों के लिए एक ही आकृति (लिपि-अक्षर) का प्रयोग होता था - भ्रामक और निराधार है। शीर्षस्थ विद्वानों के कथन को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत कर अपनी बात को सिद्ध करना बौद्धिक अप्रामाणिकता है और लगता है कि भाई सुदीपजी किसी आग्रहवश ऐसा करते जा रहे हैं। वे एक असत्य को सत्य सिद्ध करने के लिए एक के बाद एक असत्यों का प्रतिपादन करते जा रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525045
Book TitleSramana 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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