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________________ ७२ पैशाची प्राकृत में 'ण' का भी 'न' होता है अत: पैशाची प्राकृत के खरोष्ठी लिपि में लिखे गये अभिलेखों में, चाहे वहाँ लिपि में 'ण' और 'न' में अन्तर नहीं हो, वहाँ भी पैशाचीप्राकृत की प्रकृति के अनुसार वह 'न' ही है और उसे 'न' ही पढ़ना होगा। इसके अतिरिक्त एक सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पैशाची प्राकृत में 'न' और 'ण' की अलग व्यवस्था न हो और उसमें सर्वत्र 'न' का प्रयोग विहित हो तथा इसी कारण परवर्ती खरोष्ष्ठी अभिलेखों में 'ण' के लिए कोई अलग से लिप्यक्षर न हो, किन्तु अर्धमागधी में 'न' और 'ण' दोनों विकल्प पाये जाते हैं, अत: अशोक के मागधी के अभिलेख जब मान्सेरा और शाहबाजगढ़ी में खरोष्ठी में उत्कीर्ण हुए तो उनमें 'ण' और 'न' के लिए अलग-अलग लिप्यक्षर निर्धारित हुए हैं। पं० ओझा जी ने भी अपनी पुस्तक में खरोष्ठी के प्रथम लिपिपत्र क्रमांक ६५ में 'ण' और 'न' के लिए अलग-अलग लिप्यक्षरों का निर्देश किया है। मात्र यही नहीं उस लिपिपत्र में उन्होंने 'ण' की दो आकृतियों का एवं 'न' की चार आकृतियों का उल्लेख किया है -- ण = + १ न 5SSS इस आधार पर यह सिद्ध हो जाता है कि खरोष्ठी लिपि में भी ई०पू० तीसरी शती में 'न' और 'ण' के लिए अलग-अलग आकृतियाँ रही हैं। पुन: जब कोई किसी दुसरी भाषा के शब्द रूप किसी ऐसी लिपि में लिखे जाते, जिसमें उस भाषा में प्रयुक्त कुछ स्वर या व्यञ्जन नहीं होते हैं, तो उन्हें स्पष्ट करने के लिए उसकी निकटवर्ती ध्वनि वाले स्वर एवं व्यञ्जन की आकृति में कुछ परिवर्तन करके उन्हें स्पष्ट किया जाता है जैसे रोमन लिपि में ङ, ब, ण, का अभाव है, अत: उसमें इन्हें स्पष्ट करने के लिए में कुछ विशिष्ट संकेत चिह्न जोड़े गये यथा- यह स्थिति खरोष्ठी लिपि में रही है, जब उन्हें मागधी के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण करना हुए उन्होंने न (1) की आकृति में आंशिक परिवर्तन कर 'ण' () की व्यवस्था की। अत: खरोष्ठी में भी जब अशोक के अभिलेख लिखे गये तो न और ण के अन्तर का ध्यान रखा गया। अत: पं० ओझा जी के नाम पर यह कहना कि प्राचीन लिपि में 'ण' और 'न' के लिए एक लिप्यक्षर प्रयुक्त होता था नितान्त भ्रामक है। पुन: प्राचीन लिपियों में 'ण' एवं 'न' के लिए अलग-अलग आकृतियां मिलने का तात्पर्य यह भी नहीं है कि प्राचीन प्राकृतों में 'ण' का प्राधान्य था। मागधी आदि प्राचीन प्राकृतों में प्राधान्य तो 'न' का ही था, किन्तु विकल्प से कहीं-कहीं 'ण' का प्रयोग होता था। प्राकृतों में मूर्धन्य 'ण' का प्रयोग क्रमश: किस प्रकार बढ़ता गया इसकी चर्चा भी हम शिलालेखों के आधार पर पूर्व में कर चुके हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525045
Book TitleSramana 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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