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________________ १२ उन्होंने प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर १९९६ के अंक में निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया है ___ "मैं संस्कृत विद्यापीठ की व्याख्यानमाला में प्रस्तुत तथ्यों पर पूर्णतया दृढ़ हूँ तथा यह मेरी तथ्याधारित स्पष्ट अवधारणा है जिससे विचलित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।” (पृ० ९) __ यह समस्त विवाद दो पत्रिकाओं के माध्यम से दोनों सम्पादकों के मध्य है; किन्तु इस विवाद में सत्यता क्या है और डॉ० टाँटिया का मूल मन्तव्य क्या है, इसका निर्णय तो तभी सम्भव था जब डॉ० टॉटिया स्वयं इस सम्बन्ध में लिखित वक्तव्य देते; किन्तु वे इस सम्बन्ध में मौन रहे। मैंने स्वयं उन्हें पत्र लिखा था; किन्तु उनका कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। मैं डॉ० टाँटिया की उलझन समझता हूँ—एक ओर कुन्दकुन्द भारती ने उन्हें कुन्दकुन्द व्याख्यान हेतु आमन्त्रित किया था, तो दूसरी ओर वे 'जैन विश्वभारती' की सेवा में थे, जब जिस मंच से बोले होंगे भावावेश में उनके अनुकूल कुछ कह दिये होंगे और अब स्पष्ट खण्डन भी कैसे करें? फिर भी मेरी अन्तरात्मा यह स्वीकार नहीं करती है कि डॉ० टाँटिया जैसे गम्भीर विद्वान् बिना प्रमाण के ऐसे वक्तव्य दे दें। कहीं न कहीं शब्दों की कोई जोड़-तोड़ अवश्य हो रही है। डॉ० सुदीपजी प्राकृतविद्या जुलाई-सितम्बर, १९९६ में डॉ० टॉटियाजी के उक्त व्याख्यानों के विचार बिन्दुओं को अविकल रूप से प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि “हरिभद्र का सारा योगशतक धवला से (के आधार पर बना) है।" __इसका तात्पर्य है कि हरिभद्र ने 'योगशतक' को धवला के आधार पर बनाया है। क्या टाँटियाजी जैसे विद्वान् को इतना भी इतिहास-बोध नहीं रहा होगा कि 'योगशतक' के कर्ता हरिभद्रसूरि और 'धवला' के कर्ता में कौन पहले हुआ है? यह ऐतिहासिक सत्य है कि हरिभद्रसूरि का 'योगशतक' (आठवीं शती) 'धवला' (१०वीं शती) से पूर्ववर्ती है। मुझे विश्वास भी नहीं होता है कि टाँटियाजी जैसे विद्वान् इस ऐतिहासिक सत्य को अनदेखा कर दें। कहीं न कहीं उनके नाम पर कोई भ्रम खड़ा किया गया है। वस्तुत: यदि कोई भी चर्चा प्रमाणों के आधार पर नहीं होती है तो उसे मान्य नहीं किया जा सकता है, फिर चाहे उसे कितने ही बड़े विद्वान् ने क्यों न कहा हो? यदि व्यक्ति का ही महत्त्व मान्य है, तो अभी संयोग से टाँटियाजी से भी वरिष्ठ, अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के जैन-बौद्ध विद्याओं के महामनीषी और स्वयं टाँटियाजी के गुरु पद्मविभूषण पं० दलसुखभाई हमारे बीच हैं, फिर तो उनके कथन को अधिक प्रामाणिक *. ज्ञातव्य है कि विगत २० फरवरी १९९९ ई० आदरणीय टाँटियाजी का स्वर्गवास हो गया है। अत: उनके नाम पर प्रसारित भ्रमों से बचना आवश्यक है। *. पं० मालवणिया जी भी अब नहीं रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525045
Book TitleSramana 2001 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2001
Total Pages218
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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